मैं मंदिर नहीं जाता


 मैं मंदिर नहीं जाता,
में मस्ज़िद नही जाता
ना में पाँच पहर की
नमाज पढ़ता हूं
ना मंदिर की घण्टियाँ बजाता हूं
ऐसा नहीं कि मेरी भगवान में
आस्था नहीं है
या मेरा मौला से नाता नहीं है
ऐसा भी नहीं कि मैं नास्तिक हूं
ऐसा भी नहीं में काफ़िर बंदा हूं।



मैं जाता हूं मलिन बस्ती में,
 उदास चेहरों के पास,
उनके पेटों के पास
जिनके अंदर भूख की
ज्वाला जल रही है।
 उन नंगे बदनों के पास
जो ठंड से ठिठुर रहे हैं।
मुझे सुकून मिलता है
उनके चेहरों पर ,
जब मुस्कुराहट आती है।

 मैं मंदिर नहीं जाता
में मस्ज़िद नही जाता
मुझे पत्थरों के बीच में,
 सुकून नहीं मिलता।
मुझे मज़ारों में भी
सुकून नहीं मिलता
में  खुश रहता हूं
इंसानों के बीच में,
मैं निरन्तर प्रयास करता हूं
 मेरे कर्म से किसी को
ठेस ना पहुंचे।
मेरी वाणी से कोई
लहूलुहान ना हो।

 मैं मंदिर नहीं जाता
मैं मस्ज़िद नहीं जाता
 मुझे सुकून मिलता है
प्रकृति के बीच में,
कल कल बहते झरने में,
बच्चे की निश्चल मुस्कान में ,
मैं ईशवर - अल्लाह को मुस्कुराता देखता हूं।
पसीने से लथपथ मजदूर में
खेत में हल जोतते किसान में
मुझे भगवान प्रतीत होते हैं।
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- कमल राठौर साहिल
शिवपुर (म.प्र.)

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