मौसम तो पाला बदल का है!


इस समय पांच राज्यों में चुनावी बिगुल बज चुका है। इनमें से उप्र सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य है। यहां से 80 सांसद और 403 विधायक चुने जाते हैं। फिलहाल अभी तक जितने भी चुनावी विश्लेषण, आकलन और सर्वेक्षण सामने आए हैं, उनमें भाजपा की बढ़त दिखाई गई है। चुनाव का मौसम है, तो दलबदल और पालाबदल भी स्वाभाविक है, लेकिन जिसतरह से भाजपा विधायक और मंत्री पार्टी छोड़ रहे हैं वह बेहद गौरतलब है। खासतौर से स्वामी मौर्य को लेकर चिंता जताई जा रही है, क्योंकि मौर्य को अति पिछड़ों का बड़ा नेता माना जाता है। यकीनन इस पालाबदल से भाजपा के चुनावी समीकरणों को झटका लगा है। पार्टी के बड़े नेता नुकसान की भरपाई में जुटे हैं, लिहाजा कई नाराज़ विधायकों को मनाने की कवायद जारी है। हालांकि मौर्य का दावा है कि उनके साथ कुछ और मंत्री तथा 10-12 विधायक भाजपा छोड़ कर आ सकते हैं। इन असंतुष्ट नेताओं के सपा में शामिल होने की ख़बरें हैं, हालांकि औपचारिकता शेष है। इसी तरह से कभी योगी कैबिनेट में रहे ओमप्रकाश राजभर का दावा है कि भाजपा के करीब 150 विधायक सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके संपर्क में हैं। कुछ मंत्री भी रात के अंधेरे में उनसे मुलाकात करने आते रहे हैं। उप्र में शरद पवार की पार्टी एनसीपी का कोई आधार नहीं है, फिर भी वह दावा कर रहे हैं कि 13 और विधायक भाजपा को अलविदा कह सकते हैं। बहरहाल ये तमाम बयान दबाव की राजनीति का हिस्सा हो सकते हैं, लेकिन दलबदल कोई असामान्य घटना नहीं है। 1979 में जब भजनलाल ने दलबदल कर हरियाणा की पूरी सरकार को ही बदल दिया था, तो वह दलबदल की सबसे बड़ी घटना थी। उसके बाद दलबदल विरोधी कानून संसद ने पारित किया। फिर 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने उसमें बड़ा संशोधन किया। उसके बावजूद दलबदल जारी रहा है। खुद स्वामी प्रसाद मौर्य का दलबदल का इतिहास रहा है। 1980 में वह लोकदल के जरिए सियासत में आए, लेकिन जनता दल, बसपा और भाजपा में रहने के बाद अब वह सपा की दहलीज़ पर खड़े हैं। जब 2016 में वह बसपा छोड़ कर भाजपा में आए थे, तब वह बड़ी ख़बर थी, क्योंकि बसपा में वह मायावती के बाद नंबर दो के स्थान पर थे और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे। बहरहाल उप्र चुनाव में इन दलबदलुओं के कारण भाजपा का सफाया हो जाएगा, यह बिल्कुल बचकाना और अपरिपक्व निष्कर्ष है। दरअसल 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित, पिछड़े और अति पिछड़ों के वोट बैंक भाजपा के साथ जुड़े हैं। उप्र के 2017 विधानसभा चुनावों में गैर-यादव ओबीसी के करीब 61 फीसदी वोट भाजपा के पक्ष में आए थे। यह बेहद महत्त्वपूर्ण आंकड़ा है। उप्र में जाटव दलितों का अधिकांश समर्थन आज भी मायावती और बसपा के पक्ष में है, लेकिन गैर-जाटव दलितों की पहली राजनीतिक पसंद सपा के बजाय भाजपा है। सबसे बढ़कर बेरोज़गारी, महंगाई, अपराध, किसान आंदोलन आदि चुनाव के मुद्दे नहीं बन पा रहे हैं। गांव और गरीब के स्तर पर प्रधानमंत्री अन्न योजना के तहत निःशुल्क अनाज, पेंशन, पक्के मकान, शौचालय आदि जन कल्याणकारी योजनाओं से लोग बहुत खुश हैं। बहरहाल दलबदल चालू है, आगे देखिए और क्या-क्या होता है।

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