मेघा क्यों राह को बदलते हैं-
वृक्ष ये, यूँ ही हाथ मलते हैं ।

यूँ तो उसने भी, ठोकरें खाई-
पर दम वाले फिर सम्भलते हैं ।

हमसे क्यों, दूर भागते रहते-
एक हम मिलने को मचलते हैं ।



कर लिया साइड रिक्शा अपना-
थोड़ा अब , मूढ़ हम बदलते हैं ।

हृदय ये, आदमी के क्या कहिये-
गिड़-गिड़ाने से कब पिघलते हैं

हम समझते हैं जिनको अपना-
वही तो, नागों के बाप मिलते हैं ।
----------------------
- प्रमोद गुप्त
जहांगीराबाद (बुलन्दशहर)।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts