मेघा क्यों राह को बदलते हैं-
वृक्ष ये, यूँ ही हाथ मलते हैं ।
यूँ तो उसने भी, ठोकरें खाई-
पर दम वाले फिर सम्भलते हैं ।
हमसे क्यों, दूर भागते रहते-
एक हम मिलने को मचलते हैं ।
कर लिया साइड रिक्शा अपना-
थोड़ा अब , मूढ़ हम बदलते हैं ।
हृदय ये, आदमी के क्या कहिये-
गिड़-गिड़ाने से कब पिघलते हैं
हम समझते हैं जिनको अपना-
वही तो, नागों के बाप मिलते हैं ।
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- प्रमोद गुप्त
जहांगीराबाद (बुलन्दशहर)।
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