- प्रो. नंदलाल मिश्र
आधुनिक समय बहुत ही अजीबोगरीब है। नाना प्रकार की समस्याएं अचानक आ खड़ी होती हैं। लोग उससे उबरने के लिए अनेकों उपाय खोजते हैं पर एक समस्या खतम नहीं हुई कि दूसरी शुरू हो जाती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति व्यग्र और बेचैन हो उठता है। मैंने एक अध्ययन किया था और उस अध्ययन के परिणाम इतने चौकाने वाले थे कि उसी को आप तक पहुंचाने के लिए इस आलेख को आपके सामने लाना पड़ा।
इस अध्ययन के लिए मैंने दो तरह की स्थितियां ली थीं। दो तरह के समूह का भी चुनाव किया था पहला ग्रामीण समुदाय और दूसरा नौकरीपेशा समुदाय।दोनों ही समुदायों से मैंने दो दो सौ उत्तरदाताओं का चयन किया था। उन सभी उत्तरदाताओं से एक प्रश्न ऐसा पूछा गया कि आप लोगों पर जिम्मेदारियां बहुत हैं। मसलन बेटे बेटियों को पालना उन्हें शिक्षा देना उनकी शादी करना तीज त्यौहारों को निभाना सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना इत्यादि। इस प्रश्न के जो उत्तर मिले उसे ध्यान से आप समझने का प्रयास करें। गांव के लोगों ने जो उत्तर दिया वह यह था कि हमारे करने से क्या होता है। सब कुछ ईश्वर करता है। समय से बरसात हो गयी या पाला नहीं पड़ा या बाढ़ नहीं आई तो कुछ अनाज पानी हो जाता है और उसी से सारे काम हम निपटाते हैं। कुछ इधर उधर से उधार ले लेते हैं और धीरे धीरे देते रहते हैं।ऐसे ही भगवान हम लोगो की गाड़ी सरकाता है।


अब आईये शहरी और नौकरीपेशा लोगों का उत्तर देखते हैं। इन लोगों का उत्तर था वेतन प्राप्त होता है। समय पर वेतन मिल जाता है अर्थात इनकी गारंटी है कि इन्हें एक निर्धारित तिथि को वेतन मिल जाता है। इस तरह एक प्रकार से ऐसे लोग निश्चिंत होते हैं। पर गांव वाले निश्चिंत नहीं होते क्योंकि उनका कोई वेतन और तारीख नहीं होती। वे अनिश्चितता में जीते हैं। मिल गया कुछ तो ठीक नही मिला तो वह भी ठीक।
एक बड़ा दिलचस्प प्रतिरूप यह देखने को मिला कि नगरीय अर्थात नौकरी पेशा से चुने गए उत्तरदाताओं में से तिहत्तर प्रतिशत लोगों में मनोदैहिक विकृतियां पाई गईं। इन विकृतियों में हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, अस्थमा, पेप्टिक अल्सर जैसी विकृतियां प्रमुख थीं। जबकि मात्र 23 प्रतिशत ग्रामीणों में इस तरह की विकृतियां देखने को मिलीं। इसका यदि कारण तलाशा जाय तो कोई भी यह कह सकता है कि ग्रामीणजन शारीरिक श्रम अधिक करते हैं इसलिए उनमे यह विकृतियां कम थीं। शहरी लोग जो वेतनभोगी थे वे शारीरिक श्रम कम करते हैं इसलिए उनमे यह विकृतियां अधिक पाई गईं।
लेकिन यह पूरा सत्य नहीं है। ग्रामीण लोगों की तुलना में शहरी विशेषकर नौकरी वाले लोगों का एक निश्चित रूटीन होता है। उनकी दिनचर्या सेट होती है। समय पर स्नान खान पान,ड्यूटी जाना,और वापस आना।पर गांव के लोगों का कोई समय नहीं होता। वे कब नहाते हैं, कब खाते हैं कब सोते हैं कुछ भी निश्चित नहीं होता। उनकी आय का कोई निश्चित स्रोत नहीं होता।
अब यहाँ एक प्रश्न पैदा होता है कि अनिश्चितता और निश्चितता में हमे किसका चुनाव करना चाहिए। क्योंकि अनिश्चितता व्यक्ति को अभाव में भी जीने का गुर सिखाता है। और वह व्यक्ति को एक जीवन शैली देता है जिससे व्यक्ति सुखी प्रसन्न और निरोग रहकर जीवन के आनंद को प्राप्त करता है जबकि निश्चितता में हमे अनेक प्रकार के तनाव मिलते हैं। निश्चित आमदनी होने के बावजूद हम अनिश्चय की भटकन में भटकने को बाध्य होते हैं।नौकरीपेशा व्यक्ति अपने पड़ोसियों अपने कार्य स्थल के मित्रों की देखादेखी अनेक प्रकार के भौतिक साधनों को पाना चाहता है। उसे एक गाड़ी एक घर की चाहत परेशान करती है। वह बैंकों से ऋण लेता है और मासिक किस्तों में उसे चुकाता है। यही करते-करते वह रिटायर हो जाता है। ग्रामीण अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखते हैं जबकि शहरी लोगों की आवश्यकताएं असीमित होती जाती हैं। इसलिए यह जरूरी है कि हम जीवन के आनंद को खोजें।
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय
विश्वविद्यालय, चित्रकूट।

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