विनोद कुमार दुबे राबर्ट्सगंज, सोनभद्र। आज सारे संसार में चरित्र की गिरावट को लेकर चिंता प्रकट की जा रही है। जो लोग यह मानते थे कि सामाजिक सांस्कृतिक विकास आर्थिक विकास पर निर्भर करता है, उन्हें इस चारित्रिक ह्रास का कोई कारण नहीं मिल पा रहा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जो धार्मिक सांस्कृतिक आधार को ही चारित्रिक विकास का कारण मानते थे वे स्थिति से बहुत संतुष्ट है; क्योंकि धर्म और संस्कृत के क्षेत्र में भी आज उसी प्रकार से चरित का अभाव खल रहा है। अतः आज जो विश्वव्यापी परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, उसमें चरित्र निर्माण के दर्शन पर नए सिरे से विचार करना आवश्यक है। सभ्यता के आरंभ से ही दो विचारधाराएं और जीवन दृष्टियां करीब करीब समानांतर रूप से विकसित होती है महाकवि जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में कहा है - जीवन का लेकर नव विचार जब चला द्वन्द्व था असुरों में प्राणों की पूजा का प्रचार। उस ओर आत्म विश्वास निरत सुर वर्ग कह रहा था पुकार। मैं स्वयं सत्य आराध्य आत्म मंगल उपासना में विभोर, उल्लासशील में शक्ति केंद्र किसकी खोजूं मैं शरण और।। फिर इन दो दृष्टियों के मूल सूत्र को उन्होंने आगे की दो पंक्तियों में इस प्रकार व्यक्त किया है-- दूसरा अपूर्ण अहंता में अपने को समझ रहा प्रवीण। तब से आज तक 'दीनदेह' और 'अपूर्ण अहंता' को पूजने वालों का यह संघर्ष इसी प्रकार से चला आ रहा है। दोनों का यह हठ दुर्निवार है। दोनों अपने को शक्तिशाली सिद्ध करने के लिए युद्ध तक का आश्रय लेते हैं। ये दोनों अपनी अपनी दृष्टि से चरित्र का निर्माण करते हैं। स्पष्ट है कि चरित्र निर्माण के लिए स्वस्थ और स्वाभाविक वातावरण का निर्माण यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। इसलिए आज महापुरुषों का दर्शन दुर्लभ होता जा रहा है। डार्विन के विकासवाद ने चरित्र निर्माण के इस वातावरण को और भी प्रतिकूल बना दिया है। सिद्धांत का आधार रूपात्मक विकास है और उसमें गुणात्मक विकास के लिए नाम मात्र का स्थान है। अतः आज सर्वत्र उपात्मक विकास पर ही बल दिया जाता है और गुणात्मक विकास की अपेक्षा की जाती है। इसलिए आज सभ्यता भी रुपात्मक हो गई है और उसमें बाह्य आडम्बर या दिखावे को ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आज मनुष्य की मनुष्यता उसके गुणों से नहीं बल्कि उसकी रहन-सहन के स्तर से आंकी जाती है। इसलिए आज का मनुष्य 'येन केन प्रकारेण' भौतिक साधनों को जुटाने के लिए संघर्षरत है। आपने में निहित मानवीय शक्तियों को विकसित करने की और उसका ध्यान ही नहीं जाता। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में भी सत् पुरुषों का अभाव है। धर्म का स्वरूप विकृत हो गया है और अध्यात्म ने अपनी तेजस्विता खो दी है। इसलिए यदि भौतिकवादी जीवन दृष्टि हमारे जीवन को आज विकृत कर रही है तो आध्यात्मिकतावादी जीवन दृष्टि उस विकृति को रोकने में सक्षम हो चली है। विकास के संबंध में भारतीय मनीषियों की धारणा गुणात्मक थी। उपनिषदों में जिन पांच कोशों की चर्चा की गई है, वे गुणात्मक विकास के ही विभिन्न स्तर हैं। अन्नमय कोश से प्राणायाम कोश, प्राणमय कोश से मनोमय कोश, मनोमय कोश से विज्ञानमय कोश और विज्ञानमय कोश से आनंदमय कोश विकास के निरन्तर ऊंचे उठते स्तर के प्रतीक है। यदि चरित्र निर्माण के लिए यह दृष्टि अपनाई जाती है तो यह जीवन को एक भिन्न धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए ऐसे अनुकूल वातावरण की सृष्टि करती है, जिसमें मनुष्य देवोपम हो जाता है। इसी बात को लेकर ब्रह्म पुराण विष्णु पुराण एवं अन्य पुराणों में कहा गया है कि यह भारत भूमि धन्य है, जहां जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते हैं। *गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु भारत भूमिभागे।* *स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूत: पुरुषा सुरत्वात्।।* भारत भूमि की इस धारणा का कारण यह था कि यहां मनुष्य ने अपनी साधना से अपने चरित्र को इतना ऊंचा उठा लिया था कि देवता भी उसकी समता नहीं कर पाते थे। इसलिए देवता ईश्वर नहीं बन सके, परंतु राम और कृष्ण ईश्वर हो गये। इस भारतीय कल्पना में चरित्र निर्माण का वह सूक्ष्म बीज निहित है, जिसका सम्पोषण कर भारत में चरित्र निर्माण के लिए अनुकूल परिस्थिति आज भी लायी जा सकती है। परंतु इसके लिए सबसे पहले धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों से जुड़े हुए व्यक्तियों को स्वयं अपने जीवन को अमूल बदलना होगा। यह किस प्रकार संभव है वह देखें-- ब्रह्मविज्ञानोपनिषद् में कहा गया है- *आत्मवच्चक: सर्ववच्चक:*। अर्थात-- "अपने को धोखा देने वाला सब को धोखा देता है।" (स्वतंत्र विचारक लेखक)
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