डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को वापस ले लिया है पर किसान अभी भी एमएसपी को लेकर डटे हुए हैं। आजादी के 75 साल बाद भी एमएसपी पर खरीद कुछ फसलों तक सीमित है। वहीं एमएसपी व्यवस्था को युक्ति संगत बनाना आज भी आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसानों को मुख्यधारा में लाने के लिए एमएसपी व्यवस्था कारगर सिद्ध हो सकती है।
अन्नदाता को आर्थिक विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लाख दावे किए जाते रहे हों पर वह दिन अभी दूर की कौड़ी है जब देश का अन्नदाता अपनी मेहनत से तैयार उपज का भाव स्वयं तय कर सके। कई दशकों से चली आ रही एमएसपी व्यवस्था के बावजूद अभी एमएसपी के नाम पर ले देकर किसान गेहूं, चावल, कपास, गन्ना, सरसो, सोयाबीन, मूंगफली और अब पिछले कुछ सालों की बात करें तो मूंग-उड़द की बात की जा सकती है। दुनिया आज मोटे अनाज को लेकर गंभीर हुई है और मोटे अनाज को बढ़ावा देने की बात की जा रही है, वहीं बाजरा आदि मोटे अनाज की खरीद कोसो दूर है।



पिछले सालों में एमएसपी दरों में अच्छी खासा बढ़ोतरी हुई है तो दूसरी और कृषि लागत में भी काफी बढ़ोतरी हुई है। इसलिए एमएसपी बढ़ने के बावजूद अधिक लाभ वाली बात नहीं है। यही कारण है कि नए कृषि कानूनों के चलते सबसे मुखर आवाज उभर कर आई है तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था को लेकर हुई है।
यह सही है कि पिछले कुछ सालों से फसल की बुवाई के समय या उसके आसपास ही फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाने लगी है। इससे पहले देरी से एमएसपी की घोषणा को लेकर विवाद होता रहता था और यह कहा जाता था कि समय पर एमएसपी की घोषणा नहीं होने से किसान अच्छे मूल्य वाली फसलों की बुवाई से वंचित रह जाता था।
अब हालात में सुधार आया है। पर सवाल अभी भी वहीं का वहीं है। अभी भी एमएसपी को लेकर वह जागरुकता नहीं है जो उसमें होनी चाहिए। इसका एक बड़ा कारण देश में खेती के लिए चली आ रही संस्थागत ऋण व्यवस्था है। देश की संस्थागत वित्तदायी संस्थाएं आजादी के सात दशक बाद भी सभी किसानों की खेती के लिए आवश्यक वित्त व्यवस्था करने में विफल रही हैं। यही कारण है कि आज भी बड़ी संख्या में काश्तकारों के रुपयों-पैसों की जरूरत पूरी करने के लिए गैर संस्थागत ऋण दाताओं खासतौर से साहूकारों पर निर्भरता बनी हुई है।
सरकार द्वारा खरीफ और रबी के लिए फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर घोषणा की जाती है। गेहूं आदि खाद्यान्नों की खरीद की जिम्मेदारी जहां भारतीय खाद्य निगम के पास है तो दलहनी और तिलहनी फसलों की खरीद की जिम्मेदारी नेफैड ने संभाल रखी है। भारतीय खाद्य निगम और नेफैड, बदली परिस्थितियों में दोनों ही संस्थाएं खरी नहीं उतरी हैं।
आज भी देश की एमएसपी खरीद व्यवस्था गेहूं, धान, कपास, गन्ना, सरसों आदि तक सीमित है। जबकि 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष मनाने की तैयारियां जोरों से चल रही है। मोटे अनाज का महत्व समझा जाने लगा है। ऐसे में मोटे अनाज का लाभकारी मूल्य मिले यह सुनिश्चित करना भी सरकारों की जिम्मेदारी हो जाती है ताकि किसान स्वयं आगे आकर मोटे अनाज की पैदावार लेने के प्रति प्रेरित हो। सरकारों को इस ओर सोचना होगा।होना तो यह चाहिए कि जिस भी फसल का समर्थन मूल्य घोषित हो उसके भाव बाजार में कम होते ही खरीद आरंभ हो जाए तो समस्या का समाधान बहुत आसानी से हो सकता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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