"सोहन यार तेरा सरनेम क्या है ?" संजीव मिश्रा ने पूछा
“यार सच बताऊं तो मुझे मेरा सरनेम नहीं पता। अनाथों की जिंदगी जीते हुए बड़ा हुआ हूँ।” सोहन ने जवाब दिया। तुझे अपनी जाति ही नहीं पता, ऐसा कैसे हो सकता है, तू अपनी जाति को छुपाता क्यों है ? खुद की जाति पर गर्व करना सीख, मुझे देख मैं खुद की जाति पर गर्व करता हूँ और खुलकर बताता हूँ, मेरी जाति मेरा अभिमान है। संजीव ने अपनी छाती चौड़ी करते हुए कहा।



सोहन को यह बात चुभ गई। जाति का प्रश्न उसके सामने अक्सर तांडव किया करता था। जाति का अहंकार उसकी समझ से परे था। एक अमूर्त चीज ने पूरे समाज को अपने बाहुपास में जकड़ रखा था। उसके मन में अक्सर मंथन चला करता था। उसका मानना था कि विरासत में मिला सरनेम हो या प्रोपर्टी दोनों किसी काम के नहीं, वो गर्व का विषय नहीं, सम्मान का सूचक नहीं, विरासत एक ऐसी मुफ्तखोरी है जो मिथ्याभिमान को जन्म देती है। यह ऐसा दंभ है जो व्यक्ति के नकारा होने पर भी उसे अपनी छाती फुलाने का अवसर प्रदान करता है।
भारत एक मिथ्याभिमान प्रधान देश है। जहां एक ऐसा वर्ग है जो समाज में अपने काम से नहीं अपितु नाम के पिछे लगे सरनेम से सम्मान का भागी होता है। पूर्वजों की महानता का दावा कर अपनी वर्तमान दुर्दशा पर मखमल की चादर चढ़ा लेता है। भारतीय जनमानस का मनोविज्ञान भी जाति रूपी अमूर्त सत्ता को सीढ़ीनुमा स्वीकार करता है। जिसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। मेरे अनुसार एक जाति का दूसरी जाति से अलग होना तो समझ आता है किंतु एक जाति का दूसरी जाति से ऊंचे होने की अवधारणा मानसिक बीमारी की चरम सीमा है।
“अरे सोहन कहाँ खो गया भाई” संजीव ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा
“कहीं नहीं यार, और तू बता तेरी शादी कब है ? मैं तो तेरी शादी में नाचने के लिए बेताब हूँ। डीजे तो लगेगा ना भाई ? उसके बिना तो मजा नहीं आता।” सोहन ने उत्साहित हो कर कहा।
नहीं भाई डीजे-वीजे नहीं लगेगा। ये सब तो नीची जातियों के चोचले हैं। ऊंची जातियों में ये सब नहीं होता...।
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अनुज कुमार
शोधार्थी (पीएचडी)
हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय

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