क़ानून के हाथ बहुत लंबे आम अपराधी के लिए होते हैं, लेकिन जैसे ही रसूखदार अपराध करे तो क़ानून का हाथ आस्तीन के अंदर बंद हो जाते हैं। ग्लूकोज पीकर कोशिश ही नहीं करते की आस्तीन फाड़ कर हाथ लंबी होकर अपराधी की गर्दन दबोच ले। आराम से वास्तविक सुबूत सुबुक-सुबुक के धूल जाता है। साफ दिखता रसूखदार भागते पर क़ानून को ओझल दिखता। आम आदमी कानूनी दलदल के पचढ़े में जो गिरा उम्र गुजर जाने के लफड़े। जूता घिस जाती क़ानून के चौखट पर माथा टेकते।
सामने रसूख वाले तब पुलिस बौनी। उनको कर लें यदि गिरफ्तार तो लगता अफ्तार पार्टी। जेल में भी मंगल और मीडिया में झूठा दंगल। सबूत भी दम तोड़ देती न्याय की चकरघिन्नी में फंसकर क्योंकि तारीख पे तारीख फिर भी अगली तारीख उसके बाद नई तारीख। भयमुक्त वातावरण का दावा। अपराध का उल्टा दांव आम आदमी का उखाड़ दे पाँव। चोर-पुलिस का खेल आम मरियल अपराधी को जेल। रसूख वाले के हिस्से स्वाद पंचमेल सतमेल। मर्द को भले दर्द न हो किन्तु चोट पर जब दुबारा चोट लगती है तो चिल्लाता नहीं हाथी सा चिघाड़ता है। आम आदमी न्याय की उम्मीद में मर जाता जबकि रसूख का धुआँ में सारी कानूनी पचड़ा का लफड़ा उड़ जाता।



पट्टी बंधी आँखों से न्याय की देवी भी नहीं देख सकती सच। इसी का फायदा उठा रसूखदार नौ दो ग्यारह होकर सजा से जाते बच। अपराध में भी रसूख के साथ उदारता और आम के साथ कठोरता। दो आंखे बारह कान रखकर भी मौन कानून के रखवाले। इनकाउंटर भी उन्हीं करते लाले। आम आदमी भाग भी नहीं सकता और भाग कर लॉन्ग डिस्टेंस नहीं नापता और पकड़ा जाता। गरीब लोन लेकर अपने देश में जिन्दा और अमीर बिजनेस मैन मोटा लोन लेकर विदेश में रौब से भागा बंदा। भगौड़ों से आखिर कब वसूली, बस चढ़ता गरीब लोन की सूली। सवाल बहुत है जहन में गरीब के जाति-पाति ही नहीं न्याय में भी ऊंच-नीच का खेल निराला और रसूखदार माननीय के गले में माला। लोग करते उनकी जय जयकार और सच की जीत में न्याय का सिकुड़ता आकार। मर गया इंसानियत रसूख के भार से दबकर अपराधबोध का लाज भी नहीं।
- सूर्यदीप कुशवाहा
वाराणसी (उप्र)।


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