मर मिटा जिस पर बेहद हसीन था।
आरोप गरीबी, फकीरी था, मुझ पर,
फ़िदा जिस पर मेहजबींन था।
चौराहे पर टंगाया मुझे सूली पर,
शहर सारा इसका तमाँशबीन था।
गर्द, सलवटें, थकान थीं चेहरे पर,
इरादा मेरा पुरअसर शालीन था।
तमाम तमाशाई देख, आते जाते रहे,
सुना है ये शहर बड़ा कुलीन था।
मौका दिया आखिरी साँस लेने का,
मिटा जिस पर मैं, बड़ा गमगीन था।
हुक्मरान बेजा खिलखिला रहे थे,
आखिरी अल्फाज मेरा आमीन था।
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संजीव ठाकुर
रायपुर (छत्तीसगढ़)।
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