दुनिया मे ऐसे महामानव कभी कभी जन्म लेते हैं जिनको अपनी चिंता कम औरों की चिंता अधिक होती हो। बापू ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे।अपने शैक्षणिक यात्रा में वे भी अन्य व्यक्तियों की तरह ही रहे लेकिन उनका मन मष्तिष्क औरों से भिन्न था जिसको अपने मौलिक रूप में आने में अधिक वक्त नहीं लगा। भारतवर्ष को उन्होंने सिर्फ देखा नहीं बल्कि भारतीयों के बारे में उन्होंने कुछ अलग महसूस किया। गुलामी की पीड़ा और सब कुछ लुटता देख अपने अहम की तिलांजलि देकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। अपने मोहनदास को वे भूल गए और एक नया मोहनदास अवतरित हुआ। नए रूप में नए ढंग से और स्वतंत्रता आंदोलन में न सिर्फ कूदे अपितु आंदोलन के प्रणेता बन गए। धन्य है वह महामानव जिसने गुलामी से निजात दिलाने के लिए अपने जीवन को ही बदल दिया।



     स्वतंत्रता आंदोलन से बड़ी बड़ी हस्तियां जुड़ी थी।अनेको समूह जुड़े थे।पर बापू धन्य हैं जिन्होंने आंदोलनकारियों को एक विलक्षण नेतृत्व दिया।बहुत सारी समस्याओं को अपने जीवन काल मे झेलते हुए वकालत की पढ़ाई पूरी की।कितने सारे दुर्गुण भी आरंभिक काल मे सीख लिए थे।मैंने पहले भी लिखा था कि सामान्य लोगो से बापू अलग नही थे किंतु  उन्होंने अपनी जीवन शैली में आमूल चूल परिवर्तन किया। शिक्षा ग्रहण करते समय भी वे कोई ऐसे मेधावी छात्र नही रहे जिससे उनके बारे में कोई चमत्कारिक भविष्यकथन किया जाता, किंतु महात्मा बुद्ध जैसा परिवर्तन बापू में देखने को मिला।जिस तरह सांसारिक कष्टों को देखकर महात्मा बुद्ध का मन हिल उठा और घर बार छोड़कर लोगों को सदमार्ग पर लाने के लिए अपने विचारों को देश विदेश तक पहुंचाया। उसी तरह बापू में परिवर्तन आया। नाना प्रकार की असमानता, भेदभाव, रंग भेद आपसी कटुता, आपसी वैमनस्यता और ऊपर से मानव द्वारा मानव का शोषण ने बापू को अंदर से झकझोर दिया।इदं, अहम से कहीं आगे बढ़कर बापू ने अपने जीवन में सत्य अहिँसा का मार्ग चुना और सशक्त अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को हिलाने और अंततः उसे उखाड़ फेंकने में कामयाब हुए।
      अफ्रीका में रहने वाले हिंदुस्तानियों की समस्याएं भी उस समय बहुत अधिक थीं। जब मुकदमों के संबंध में गांधी जी अफ्रीका जाया करते थे तो वहां की परेशानियां उनके मन मष्तिष्क को परेशान कर देती थीं।गांधी जी चाहते थे कि उनकी परेशानियों को भारत के किसी सशक्त मंच पर रखा जाय। तब तक बापू किसी ऐसे मंच से सीधे और गहराई से नहीं जुड़े थे। उन्हें यह अवसर कलकत्ता के राष्ट्रीय अधिवेशन(1901)में मिला।इसके अध्यक्ष दिनशॉ एडल जी वच्छा थे। जब अधिवेशन की शुरुआत हुई तो सब कुछ देखकर बापू को लगा कि यहां की व्यवस्था ठीक नहीं है। काम कैसे हो।गांधी जी अपने मसौदे को फिरोजशाह मेहता को दिखा चुके थे और उस मसौदे को अधिवेशन में रखने की मंजूरी भी ले चुके थे। लेकिन अधिवेशन अपने अंतिम दौर में था और बापू को यह समझ नहीं आ रहा था कि मसौदे को कौन प्रस्तुत करेगा। थक कर वह उठे और गोखले जी के पास चुपके से जाकर उस मसौदे की याद दिलाई और गोखले जी ने मसौदे को सबके सामने रख दिया। मेहता जी पूछ बैठे की गोखले जी आपने मसौदे को देख लिया है उनका जबाब था हां।फिर क्या था मसौदा पास हो गया और गांधी जी अति उत्साहित हो गए जैसे उनको कोई बहुत बड़ी उपलब्धि मिल गयी हो।
       गांधी जी ने एक जगह पर लिखा भी है कि गोखले और तिलक दोनों ध्रुवों को एक साथ मिलाना किसी चुनौती से कम नहीं था। उन्हें एक साथ साधने के लिए एक अधिवेशन बुलाने की व्यवस्था करनी पड़ी। अध्यक्ष कौन हो इसके लिए गांधी जी भरी दुपहरी में भंडारकर जी के पास जाना पड़ा।उनके निस्वार्थ भाव को देखकर भंडारकर जी ने अपनी सहमति दे दी।इधर गोखले और तिलक को भी साधने में बापू सफल हो गए।फिरोजशाह,गोखले और तिलक की तिकड़ी को गांधी जी देश के लिए अपरिहार्य मानते थे।    गोखले जी को तो गांधी जी ने गुरु ही मान लिया था। एक दिन बहुत सहज भाव से बापू गोखले जी के पास गए और पूछ लिया कि अब आप बताइए कि मेरे लिए क्या काम है। मैं क्या करूँ? इस पर गोखले जी का जबाब था भारत का एक वर्ष का भ्रमण।
गांधी जी के कार्यो को लिखना आसान नही है।वह स्वयं में आदर्श थे।कबीर ने लिखा है कि-
  कबिरा इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय।
   मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय।।
    गांधी जी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दिया।उन्होंने कल पुर्जों का विरोध किया। सभी को काम देने की वकालत की। शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई।मजदूरों की चिंता की। जाति-धर्म से बने भारतीय ताने बाने को और ठोस रूप देने का प्रयास किया। मजहबी एकता की वकालत की। त्याग और बलिदान को प्रमुख माना।
   हम गुलामी से मुक्त हुए। गांधी जी अपने आप को सत्ता से दूर रखें।भारत को भारतीयों को सौंप दिया। पर उसके बाद भारत में जो देखने को मिल रहा है वह गांधीवाद से काफी कुछ अलग है। धर्म निरपेक्षता किसी कोने में पड़ी हुई है। देश के कुछ नेता जाति को इस कदर राजनीति के दलदल में घसीट चुके हैं कि लगता ही नही है कि वे देश के समाज  को आपसी सौख्य का स्वाद लेने देंगे। देश की दिशा और दशा दोनों जातिवाद के घने अंधकार में भटक गया है।भारतीय लोकतंत्र की दुहाई देते हुए ये लोग रोज समाज को दरकाने में लगे हुए हैं और मुंगेरीलाल जैसे हसीन सपने देखते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन होना चाहते हैं।
    गांधी के विचार कालजयी हैं। उनके विचार ही देश की मौलिक थाती है।उनके विचारों से इतर जाने का अर्थ है टुकड़े टुकड़े हो जाना।क्योंकि सार्वभौमिक सत्य और शाश्वत नियम किसी के बदलने से बदलते नही हैं।समय समय पर वे अपना हिसाब लेते हैं।अभी भी वक्त है हम गांधी जी को ठीक से याद करें।
 - प्रो. नन्दलाल मिश्रा
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts