- प्रो. नन्दलाल मिश्रा
नेता बनना और नेतृत्व प्रदान करना आज के परिप्रेक्ष्य में एक दुरूह कार्य है।किसी जमाने में हम नेता उनको मानते थे जो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, सामुदायिक और समाज को समस्याओं से निजात दिलाते थे तथा समाज एवं समुदाय की तरक्की का मार्ग प्रशस्त करते थे। समाज को ऐसी दिशा देते थे जिससे समाज में खुशहाली और सद्भाव पनपता था। उस नेता को लोग सिर आंखों पर बिठाते थे तथा उसके इशारे पर कोई भी कठिन से कठिन काम भी कर देते थे।



नेता गांव का हो, नेता पंचायत का हो, नेता खंड विकास का हो अथवा नेता तहसील या जिले का हो। उसका आदर था। समाज को उससे उम्मीदें रहती थीं और नेताओं के अंदर मूल्य हुआ करते थे। अपनी बातों को निभाने के लिए वे जाने जाते थे। इसलिए वे नपे तुले शब्दों और वाक्यों का ही प्रयोग किया करते थे। संघर्ष करके वे आगे पहुँचते थे। उनमें एक विचारधारा का विकास होता था। उसी विचारधारा को जीवित रखने तथा उसे आगे बढ़ाने के लिए अहर्निश प्रयत्न किया करते थे।
यह भी कहा जा सकता है कि तत्कालीन समय मे वैकल्पिक विचारधारा का अभाव था। मुस्लिम आक्रांताओं और अंग्रेजो की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए लोग इक्कठे होते थे तथा अपने अपने विचारधाराओं को सामने रखते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के छतरी के नीचे कई गुटों में बंटे होने के बावजूद एकत्रित होते थे। देशभक्ति और देशप्रेम से ओतप्रोत लोग समाज मे संघर्ष करके आगे बढ़ते थे। आगे बढ़ने के लिए त्याग, संघर्ष, सामाजिक सेवा, निष्ठा, ईमानदारी जैसे मूल्य लोग अपनाते थे। तिलक, गोखले और महात्मा गांधी के आदर्शों ने जनप्रतिनिधियों को अपनी शर्तों पर तैयार किया और वे जनप्रतिनिधि जनता की आकांक्षाओं पर खरे उतरे।
1970 के आसपास इन मूल्यों में गिरावट आनी शुरू हुई। कांग्रेस के नेता अपने विचारों को सार्वभौमिक मानने लगे और मानते ही नहीं थे उस पर अड़े भी रहते थे। परिणाम इमरजेंसी के रूप में सामने आया। लोकनायक जयप्रकाश जी के नेतृत्व में सभी ऐसे नेता एक साथ आ गए जिनका वैचारिक मतभेद कांग्रेस से था। तब भी अभी नेतृत्व में वह ह्रास नहीं आ पाया था जो 1980 के बाद देखने को मिला। राजनीति में हिंसक लोग सम्मिलित होते चले गए। बिना हिंसा किये कोई नेता नहीं बन सकता था। हिंसा करना राजनीति के लिए अपरिहार्य बन गया। मूल्य नैतिकता ईमानदारी कर्तव्यनिष्ठा सभी कुछ बेमानी होते चले गए। जो जितना पीठ में छुरा भोकने में माहिर था वह उतना ही बड़ा नेता बनता चला गया। माननीय अटल जी की कविता-
पीठ में छूरी सा चाँद राहु गया रेखा फांद। या बेनकाब चेहरे है दाग बहुत गहरे हैं, टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं, गीत नहीं गाता हूं गीत नहीं गाता हूं।
संसद से लेकर विधानसभाओं में दागी लोग पहुंचना शुरू हुए। इसके बाद जिलाध्यक्ष पंचायत और नगरपालिका से लेकर महानगर पालिका तक में जन प्रतिनिधि बिना हिंसा किये पहुँच ही नही सकते। उनके अनुयाई भी हिंसक लोग ही थे। इस तरह देखें तो समाज में हिंसकों की फौज बढ़नी शुरू हो गयी। जिस संसद में देश के विकास की चर्चा होती हो, जिस संसद में लोगों को सुखी जीवन देने के सपने देखे जाते हों वहाँ ये हिंसक किसी की क्या भलाई करेंगे। जिस व्यक्ति को जनप्रतिनिधि बनना हो पहले उसे समाज मे तांडव करके दिखाना होगा कि वह कितना बड़ा तांडवी है। जो जितना बड़ा उपद्रवी होगा उसे सर्वप्रथम टिकट पाने की योग्यता उतनी ही अधिक होगी।
इस तस्वीर को बदलने की जरूरत है। जब गांधी जी सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर अंग्रेजों से लोहा ले सकते हैं तो क्या भारत में इस धारणा को बलवती क्यों नहीं किया जा सकता कि ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति का चुनाव करो जो समाज और देश की भलाई कर सके। उन्हें अपना नेता मत बनाओ जो दूसरे की जमीन हड़पता हो, जो हत्या करने के लिए उकसाता हो, जो व्यभिचार के रास्ते पर चलता हो जो भ्र्ष्टाचार में आकंठ डूबा हो। हम उसे चुने जो योग्य है जो विनम्र है जो मूल्यों में विश्वास रखता हो जो समाज को साथ लेकर चलने की सोचता हो। सभी दल यदि चाहें तो ऐसा हो सकता है पर कोई भी इस पर विचार करने को तैयार नहीं है। ऐसे जनप्रतिनिधि अनुयायी भी अपने जैसा ही चाहते हैं। परिणाम यह होता है कि जनता के बीच में ऐसे लोगों की फौज खड़ी हो जाती है जो गुनाहों में लिप्त हैं।
ग्राम पंचायत का प्रतिनिधि स्कार्पियो फार्च्यूनर बोलेरो से चलता है। उसके पास चुनाव लड़ने को पैसा नहीं होता पर जीत जाने के 2 साल बाद वह लगजरी गाड़ियों से चलने लगता है।
वक्त की मांग है हम योग्य का चुनाव करें अन्यथा यह अंतहीन सिलसिला समाज और लोकतंत्र की जड़ों को कुतरता रहेगा और हम संसद और विधायिका में कुर्सी और माईक से एक दूसरे पर प्रहार देखने को बाध्य होंगे।ऐसे जनप्रतिनिधि जिनका राजनीतिक प्रादुर्भाव हिंसा के बल पर होता है उनसे सभ्य निर्णय और विकास की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। दांवपेंच,एक दूसरे को नीचा दिखाने और अपने प्रतिद्वंदी को किनारे लगाने की लालसा एक दिन समाज और जनता को नए सिरे से सोचने को बाध्य कर देगा।

(प्रोफेसर महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विवि चित्रकूट, सतना।)

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