अल्पना के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय लेख 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, वह इस प्रकार है "एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया।'' ब्रह्मा ने राजा से कहा, ''वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे ताकि उस में जान डाली जा सके। राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं, यहीं से अल्पना की शुरुआत हुई।
इसी संदर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था, बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति अल्पना का प्रथम रूप है। अल्पना के संबंध में और भी पौराणिक संदर्भ मिलते हैं, जैसे - रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं वहाँ भी अल्पना का ज़िक्र है। दक्षिण में चोला शासकों के युग में अल्पना का सांस्कृतिक विकास हुआ।
मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के 'काम-सूत्र' में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतया यह जाना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के - 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है - लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ।
बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध 5000 वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आँदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जो बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है।
कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो कि इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओँ व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रक्खा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं।
लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अल्पना कला केवल बंगाल में ही प्रचलित है या थी। इसका अलग-अलग नामों से भिन्न-भिन्न रूपों में भारत के अन्य भागों में भी प्रचलन है, गुजरात में इसे सतिया, महाराष्ट्र में रंगोली, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश में चौक पूरना व सांझी, पहाड़ों में चौक पूरण व कहीं-कहीं 'एपण', राजस्थान में मंडने, बिहार में अरिचन, मधुबनी, कहजर, आँध्र प्रदेश में मुग्गुल और दक्षिण भारत में कोलम कहते हैं।

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