-संजीव ठाकुर

सबसे पहले हमें शिक्षा और साक्षरता के मूल अंतर को पहचानना होगा। शिक्षा जीवन के महत्व, संकल्पना को निरूपित करती है वही साक्षरता मनुष्य के संपूर्ण जीवन को अंश मात्र से ही अपना पक्ष रखती है। शिक्षा व्यक्ति के संपूर्ण जीवन पद्धति को विकसित करने का जरिया तथा महत्वपूर्ण विकल्प है, जिसके अंतर्गत पढ़ना-लिखना, समझना, चरित्र विकास, बौद्धिक मानसिक, मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक सभी पहलुओं में गुणात्मक विकास करने के लिए आवश्यक कारक है। साक्षरता में संस्कृतिक सभ्यता तथा अन्य माननीय जीवन की कल्पना उसे इसका कोई संबंध नहीं रह जाता है। साक्षरता सदैव रोजगार मूलक स्त्रियों से जुड़ी होती है, जबकि सभ्यता संस्कृति का विकास मानवी शिक्षा से ही संभव हो पाता है। शिक्षा हमें सभ्य होना सिखाती है। इसमें व्यक्ति के मनन, चेतना, सद्बुद्धि और विचारशीलता में वृद्धि करती है। ऐसा भी संभव होता है कि कई वर्षों के अध्ययन से व्यक्ति सभ्य और सुसंस्कृत नहीं हो पाता है। इसीलिए विचारकों ने शिक्षा और संस्कृति को अलग-अलग पैमाने से नापा है।



सुसंस्कृत व्यक्ति सदैव संतुलित, शांत एवं नीति निर्णायक बन सकता है, पर कई उदाहरणों में ऐसा भी पाया गया है उच्च शिक्षित व्यक्ति उच्छृंखल हो सकता है। वर्तमान समय में उच्च शिक्षित और ज्यादा पढ़े लिखे अज्ञानियों की संख्या बहुतायत में है। ऐसा ज्यादातर तकनीकी शिक्षा के मामले में देखा गया है, इसीलिए उच्च शिक्षित व्यक्ति जो सद व्यवहार नहीं करता, उन्हें केवल साक्षर मान के शिक्षित व्यक्ति ना माना जाए। शिक्षा और संस्कृति तथा विरासत के मूल्य का आपस में गहरा संबंध है, जबकि साक्षरता का इससे बहुत दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। वैसे शिक्षा और संस्कृति के ज्ञान का प्रारंभिक गर्भावस्था से ही हो जाता है, अर्जुन पुत्र अभिमन्यु इस बात के बहुत बड़े उदाहरण हैं। महात्मा गांधी तथा अब्राहम लिंकन ने मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं विकास के लिए माताओं का योगदान बहुत महत्वपूर्ण बताया हैl
परिवार की शिक्षा के बाद विद्यालयों की शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इसमें अनुशासन, सहभागिता, समानता एवं नेतृत्व जैसे गुणों का समावेश होता है। पुस्तकों का ज्ञान व्यक्ति एवं व्यक्ति के जीवन में संज्ञानात्मक विकास को बढ़ावा देता है, पर शिक्षक की भूमिका जिंदगी में बड़ी ही प्रेरणादाई होती है। यह कहा जाता कि बिना गुरु ज्ञान नहीं हो सकता है, लोकोक्ति सही भी है, शिक्षकों का मार्गदर्शन खेल खेलने से विकसित होने वाले मूल्य जैसे समूह की भावना, निष्पक्षता, ईमानदारी,साहस की भावना को परिष्कृत करती है। ऐसे कई उदाहरण हैं की बिना साक्षरता के व्यक्ति पूर्ण रूप से शिक्षित एवं सुसंस्कृत हो सकता है।
अपने समय के महान चिंतक फिलासफर सुकरात ने कहा था कि मैं शिक्षित अथवा ज्ञानी इस अर्थ में हूं, कि मैं कुछ नहीं जानता। शिक्षा व्यक्ति के जीवन में अहंकार, लालच, हिंसा, कटुता आदि को नियंत्रित करने में मदद देती है। पुराण काल में रावण प्रकांड पंडित एवं साक्षर व्यक्ति माना जाता था पर स्त्री के अपहरण में उसका कृत्य अहंकार लालच लिप्सा उसकी साक्षरता को सार्थक नहीं कर पाई। पर आज के संदर्भ में जब आज का युग प्रतिस्पर्धा का युग है, साक्षरता ने शिक्षा की जगह वरीयता प्राप्त करना शुरू कर दिया है। यह माना जाता है जिस व्यक्ति के पास अच्छी नौकरी अच्छा पद और मोटी मोटी तनख्वाह है, उसका समाज ज्यादा ही सम्मान करने लगता है। इन्हीं कारणों से समाज मूल्य तथा संस्कृति के विकास को दरकिनार कर रोजगार मूलक साक्षरता को ही आज वरीयता देता है। और समाज उसे सिर आंखों पर बिठा के रखता है। इससे समाज के दीर्घकालिक सांस्कृतिक मूल्यों का हनन होता है, एवं क्षति भी होती है। और इस प्रक्रिया में साक्षरता पक्ष होने के कारण रोजगार साधन बन जाते हैं। एवं साधनों की परवाह न कर इसकी खुली अवहेलना हो लोग करने लगे हैं और इसी कारण शिक्षा के क्षेत्र में नकल, फर्जीवाड़े,धन देकर नौकरी प्राप्त करना आदि की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। साक्षर तो घोटालेबाज केतन पारेख हर्षद मेहता एवं कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन भी थे, किंतु इनकी शिक्षा की सार्थकता समाज द्वारा सदैव नापसंद की गई एवं समाज इन्हें हेय दृष्टि से देखने लगा है।
आज के संदर्भ में ऐसी शिक्षा या साक्षरता की आवश्यकता है, जो मानव जीवन में मूल्यों का विकास एवं मूल्यों की प्रतिबद्धता विकसित कर सके। जिससे समाजिक गिरते मूल्यों तथा विरासत की अवहेलना ना हो सके। बिना मूल्यों के बिना संस्कृतिक विचारधारा के साक्षर होना ठीक उसी तरह है जैसे किसी बंदर के हाथ में बंदूक या उस्तरा देना है। हमें आज नैतिक साक्षरता देने की आवश्यकता होगी, जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास विरासत की रक्षा तथा मानवीय संवेदनाओं का संपुट हो, जो व्यक्ति को एक अच्छा इंसान बना सकें।
- चिंतक, लेखक, रायपुर (छत्तीसगढ़)।




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