- सूर्यदीप कुशवाहा
वाराणसी।

आज के आपाधापी युग में राजा रंक फकीर सबको चाहिए धन। अभी नहीं समझे आप सभी तो सुनिए अभी। आदर्श भले चला जाए तेल लेने लेकिन चाहे माननीय हो या छुटभइया नेता, अधिकारी, कोई कर्मचारी, पुलिस, वकील पब्लिक सबको चाहिए बस पैसा। हाय रे पैसा! तेरी महिमा से प्रभावित सब लोग और फिर बस चाहिए पैसा काला सफेद चाहे जैसा। पैसा के होड़ में अपने अंदर की नैतिकता को तोड़ खुशहाली को ढूढ़ते लोग। भ्रष्टाचार का घुन गेहूं के घुन से भी तेज देश को घुन रहा। ऐसे लोग बेईमानी से समाज में चमक रहे और उनकी आत्मा काली करतूत से पहले ही मर चुकी है।

आदर्श की बड़ी बातें करते नहीं अघाय और खुद बेशर्म निर्वस्त्र घूम रहे हैं। राजा मंत्री संत्री सब गोलमाल में दिमाग खपाए हुए और देश की आदर्शवादी प्रतिष्ठा मटियामेट। पूछता है भारत ऐसे कैसे विश्व गुरु बन पाएगा जहाँ भ्रष्टाचार की कमाई से हवेलीयां बन रहीं हैं और बेचारा गरीब भूखा नंगा बदन लिए नल का पानी पीकर करवट बदल रहा कब नींद में सो गया और सुबह जगा और इधर भ्रष्टाचार में लिप्त बंदा मखमली गद्दीदार बिस्तर पर रात भर बेचैन करवट बदलता, क्योंकि वह कल किसकी जेब काटनी यह सोचता।
तनख्वाह मोटी हो चुकी है पर कर्मचारी जेब काटने को ही कमाई आज कहते हैं। आज समाज में लोग प्राइवेट बंदे की बेशर्मी से कमाई पूछते हैं कितना सैलरी पाते हो? आखिर पैसे जानकर उतनी ही तो इज्जत देनी है। यही समाज ऐसे प्रश्न के कटाक्ष से भ्रष्टाचार के दानव को बढ़ाता जा रहा है। इसलिए प्राइवेट में भी घुस रहा यह भ्रष्टाचार का घुन। जितनी बड़ी कुर्सी ईमानदारी का लेवल उतना ही चौकस सुरक्षित कमाई क्योंकि नीचे से ऊपर चढ़ता चढ़ावा।
ईमानदारी से काम निकलना आम आदमी भी नहीं चाहता इसीलिए वह दो सौ पाँच सौ चाय-पानी के नाम पर देकर समाज में ईमानदारी पर खूब बकैती करता। भ्रष्टाचार को ऊपर ले जाने का श्रेय इन्हीं जैसे महाशय को है। सभी इससे दो चार होते कोसते लेकिन शिकायत नहीं करते और कहते इतना समय नहीं है घंटों बकैती में भले गुजार देते।
माननीय नेता भाषण से ईमानदारी वाला छवि प्रगट करते और उनके लच्छेदार भाषण को सुनकर जनता वोट दे पाँच साल में उनका विकास देखकर कोसती। भ्रष्टाचार की महिमा के वशीभूत होकर आज अपने काम को करवाने की मनौती का चढ़ावा खूब चढ़ाया जा रहा है जैसे लगता है अब यह सिद्ध प्राप्त पूजन तरीका सर्वमान्य हो गया है 'भ्रष्टाचार रूपी चढ़ावा से कार्य सिद्ध सकल संसारा, सब सुख लहे तुम्हारे द्वारा।
आज आम खास सब यह यह पंक्ति जैसे बड़बड़ा रहे हो - 'सुख दुख लहे तुम्हारी शरणा, चढ़ावा से सब काज पूर्णा।'
आज ईमानदार को समाज में बड़ा कष्ट उठाना पड़ रहा सब उससे रुष्ट हैं पड़ोसी, देवी-देवता, साधु-संत, फकीर क्योंकि देने के लिए उसके हाथ में नहीं पैसा वाली लकीर। उसकी अंतर्रात्मा चढ़ावा से रोकती है, जिससे कार्य में विघ्न पड़ जाता और कार्य होने का मनोरथ सफल नहीं हो पाता। ह्रदय में चमक होती चमक और चेहरा बुझा।


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