जिधर देखूँ उधर तुम ही तुम हो,

हां, रीझूं मन में,शायद तुम ही हो।।
तमस चीर स्वर्णिम उर्मियों की आगत,
पिक, शुक, कीर, सारिका की चहचहाहट।
मलय पवन की मदमस्त सनसनाहट,
मन्दिर के घंटे की कर्णप्रिय टनटनाहट।
अप्रतिम साकार विग्रह मनोरम दर्शन,
मन में रहस्यमयी विविधता के दर्पण।




जिधर देखूँ उधर तुम ही तुम हो,
हां, रीझूं मन में,शायद तुम ही हो।
पत्तों की कमनीय मृदुल सरसराहट,
सुरभित उपवन में अलि की गुंजाहट।
सारंग मुख चूमे मधुकर की मदमाहट,
सौरभ रस पे तितलियों की सुगबुगाहट।
धरा से क्षितिज के मिलन की प्रत्याशा,
कण कण में विद्यमान प्यारी सजावट !
देखूँ जिधर उधर तुम ही हो,
हां, शायद तुम ही हो।
उर के शिवाले में विभूषित खिलावट,
ह्रदय स्पन्दन में अलौकिल रसावट।
श्वांसों के मद्धम सुर में तेरी चाहत,
श्वांस लहरियों से मधुरिम बुलाहट।
आत्म ज्योति में अनहद नाद निरंजन,
बसे हो शुचि सर्वेश्वर मंजुल मूर्तिमान।
तुम्हारे लिए मनसुमन अर्पण मुग्धमान।
देखूँ जिधर उधर तुम ही तुम हो,
हां, शायद तुम ही हो।
- सीमा गर्ग मंजरी
  मेरठ, कैंट (उप्र)।


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