- सतीशचंद शुक्ला सत्पथी, जौनपुर।

पश्चिमी राजस्थान में एक कविता है ''ताल मिले तो पंगा रा घुंघरु बाजे'' अर्थात गायकी के साथ सधा हुआ संगतकार हो तो सुननेवाला उस गीत-संगीत में डूब जाता है। राजस्थानी लोक संस्कृति में लोक वाद्यों का काफ़ी प्रभाव रहा है। वाद्य यंत्रों का विशिष्ट चूँकि राजस्थान में लोक नृत्य, लोक नाट्य और लोक संगीत में अत्यधिक विविधता है, फलत: लोकवाद्यों की एक लंबी फेहरिस्त है। राजस्थान में प्रचलित लोकवाद्यों को तीन श्रेणी में रखा गया है - तार वाद्य, फंक वाद्य तथा खाल से मंढ़े वाद्य।




संगीत और वाद्ययंत्रों का साहचर्य भी प्राचीन है। वाद्य यंत्रों का भी इतिहास है। भारतीय संगीत में वाद्य यंत्रों का विशिष्ट महत्व है। यदि हम पौराणिक कथाओं और धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें तो पाएँगे कि हिंदू धर्म के देवी-देवताओं में सदा ही किसी न किसी वाद्य यंत्र का चित्रण किया गया- जैसे माँ सरस्वती के हाथों में वीणा, भगवान कृष्ण के हाथों में बाँसुरी, महर्षि नारद के हाथों में एकतारा, शिव के हाथों में डमरू आदि।

घुमक्कड़ जातियों का वाद्य यंत्र
इन्हीं वाद्य यंत्रों में एक प्रमुख वाद्य यंत्र है - ''सारंगी''। प्राचीन काल में सारंगी घुमक्कड़ जातियों का वाद्य था। मुस्लिम शासन काल में सारंगी नृत्य तथा गायन दरबार का प्रमुख संगीत था। इस वाद्य यंत्र का प्राचीन नाम ''सारिंदा'' है जो कालांतर के साथ ''सारंगी'' हुआ।
राजस्थान में सारंगी के विविध रूप दिखाई देते हैं। मीरासी, लंगे, जोगी, मांगणियार आदि जाति के कलाकारों द्वारा बजाये जाने वाला यह वाद्य गायन तथा नृत्य की संगीत की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। संगत वाद्य के साथ सह स्वतंत्र वाद्य भी हैं। इसमें कंठ संगीत के समान ही स्वरों के उतार-चढ़ाव लाए जा सकते हैं। वस्तुत: सारंगी ही ऐसा वाद्य है जो मानव के कंठ के निकट है।
अलग-अलग प्रकार की सारंगी
सारंगी का आकार देखें तो सारंगी अलग-अलग प्रकार की होती है। थार प्रदेश में दो प्रकार की सारंगी प्रयोग में लाई जाती हैं। सिंधी सारंगी और गुजरातन सारंगी। सिंधी सारंगी आकार-प्रकार में बड़ी होती है तथा गुजरातन सारंगी को मांगणियार व ढोली भी सहजता से बजाते हैं। सभी सारंगियों में लोक सारंगी सबसे श्रेष्ठ विकसित हैं। सारंगी का निर्माण लकड़ी से होता है तथा इसका नीचे का भाग बकरे की खाल से मंढ़ा जाता है। इसके पेंदे के ऊपरी भाग में सींग की बनी घोड़ी होती है। घोड़ी के छेदों में से तार निकालकर किनारे पर लगे चौथे में उन्हें बाँध दिया जाता है। इस वाद्य में 29 तार होते हैं तथा मुख्य बाज में चार तार होते हैं। जिनमें से दो तार स्टील के व दो तार तांत के होते हैं। आंत के तांत को 'रांदा' कहते हैं। बाज के तारों के अलावा झोरे के आठ तथा झीले के 17 तार होते हैं। बाज के तारों पर गज, जिसकी सहायता से एवं रगड़ से सुर निकलते हैं, चलता है। सारंगी के ऊपर लगी खूँटियों को झीले कहा जाता है। पैंदे में बाज के तारों के नीचे घोड़ी में आठ छेद होते हैं। इनमें से झारों के तार निकलते हैं।
दूसरी प्रकार की सारंगी 'गुजरातन सारंगी' को गुजरात प्रदेश में बनाया जाता है। इसे बाड़मेर व जैसलमेर जिले में लंगा-मगणियार द्वारा बजाया जाता है। यह सिंधी सारंगी से छोटी होती है एवं रोहिडे की लकड़ी से बनी होती है। इसमें बाज के चार तथा झील के आठ तार लगे होते हैं। मरुधरा में दिलरुबा सारंगी भी बजाई जाती है। वैसे दिलरुबा सारंगी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में लोकप्रिय वाद्य है, परंतु जैसलमेर जिले में सिंधी मुसलमान रहते हैं, इसलिए यह वाद्य काफ़ी लोकप्रिय है।

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