ना जाने कब इंतजा़र के
गीत बनने लगते हैं
और एक दिन फिर
विरह की पीड़ा में
वो गज़ल हो जाते।
मगर कविता का क्या?
वो तो साक्षात स्वयं 'जिंदगी' है
जिसे लिखने वाले
आप स्वयं कवि हैं
वो भी किसी और के इशारों पर
जहाँ आपका बस सिर्फ और सिर्फ
मात्र उसे लिखने भर पर ही रहता है।
कम ज्यादा कुछ नहीं
यह ठीक उसी तरह से है
जैसे कोई तयशुदा नाटक
रंगमंच पर अपनी कला
प्रदर्शित कर रहा हो।
- दिव्या सक्सेना
(कलम वाली दीदी)
ग्वालियर (मप्र)।
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