ज्ञानपुर, भदोही। भगवान शिव सबका कल्याण करने वाले हैं। वह परोपकार का संदेश देते हैं। शिव भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं, विसंगति में संगति तथा अनेकता में एकता के शाश्वत द्रष्टा हैं। शिव तो अपवादों और उपेक्षाओं के विष को पी जाते हैं। कंठ में रख लेते हैं, पर जीभ पर आने नहीं देते और न ही हृदय तक ले जाकर वैर-विरोध की गांठ पालते हैं। भगवान शिव आद्य उपास्य हैं। वेदों में उनकी महिमा में कई सूक्त उपलब्ध हैं। इनमें यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय का रुद्र सूक्त अत्यंत प्रसिद्ध है। इस सूक्त में शिव को मानव समाज के हर घटक के साथ जोड़कर देखा गया है। वह सभी के रक्षक हैं। यही कारण है कि वेद उन्हें विश्वव्यापी विश्वात्मा के रूप में देखता है। मानव-संस्कृति के प्रागैतिहासिक काल में वह उसी तरह पूज्य थे जैसे आज। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा कालीन दो मुद्राएं प्राप्त हैं। एक में शिव का वाहन नंदी (वृषभ) अंकित है तो दूसरी में योगी के रूप में जटा-कुंडलधारी शिव अंकित हैं। लिंगाकार शिव और जलधारी सहित शिवलिंग एशिया में अन्यत्र भी मिले हैं। गंगा के साथ शिव की प्रतिमाएं तंजौर और नेपाल के पाटन में सुरक्षित हैं। नटराज की प्रतिमा एलोरा के कैलास मंदिर में दर्शनीय है। चोल और राष्ट्रकूट राजाओं ने शिव की सुंदर प्रतिमाओं का निर्माण कराया। देश में शिवालय तो गांव-गांव में मिल जाएंगे। दक्षिण भारत तो शिवमय ही है। सौराष्ट्र गुजरात में सोमनाथ, श्री शैल पर मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, नर्मदा तट पर ओंकारेश्वर, झारखंड में वैद्यनाथ, महाराष्ट्र में भीमशंकर, नासिक में त्र्यंबकेश्वर, दारूकवन में नागेश्वर, रामेश्वर में सेतुबंध शिव, वाराणसी में विश्वनाथ, उत्तराखंड में केदारनाथ तथा आंध्र में घुश्मेश्वर नाम से प्रसिद्ध बारह ज्योतिर्लिंग हैं। हरिद्वार के दक्षेश्वर महादेव तथा ऋषिकेश के नीलकंठ महादेव की महिमा भी संपूर्ण देश में व्याप्त है। भारतीय समाज स्वयं को शिव से जोड़कर देखता है। बागमती नदी के तट पर स्थित पशुपतिनाथ (काठमांडू-नेपाल), उत्तराखंड के केदारनाथ के पूरक कहे जाते हैं। भस्मासुर या वृकासुर के साथ जुड़े कथानक के अनुसार विकल होकर भागते हुए शिव की पीठ केदार में पूज्य है तो मुख पशुपतिनाथ में पूजित है। यह शिव की आशुतोषिता का प्रमाण है। वह वरदान देते हुए सब कुछ भूल जाते हैं। लोक कथाओं में उन्हें अवसरदानी कहा गया है। वह जनकल्याण के लिए निरंतर घूमते रहते हैं। जनकल्याण की कामना से ही वह कैलास पर्वत पर निवास करते हैं। उनकी दृष्टि पूर्ण समतावादी है। सांप, बिच्छू, चिता की राख, आक, धतूरा, हाथी या चीते की खाल का अधोवस्त्र, श्मशान निवासी, स्वर्ण कुंडल, कंकण, रेशमी परिधान, अंगराग, नैवेद्य उनके लिए एक से हैं। वह भक्तों के लिए मंगलायतन हैं। देवता और असुर उनके लिए समान हैं। उनके लोकोपकारी व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव है कि इन्द्र आदि देवता और ब्रह्मर्षिगण उनके शरीर से झरती हुई राख के कण भाल पर चढ़ाने के लिए आतुर रहते हैं। महाकवि कालिदास ने कहा है, ‘न विश्वमूर्तेरवधार्यते वयु:’ जो विश्वमूर्ति है उसे एक रंग, एक रूप, एक वेष, एक मुद्रा तथा एक प्रदेशीय या एकदेशीय कैसे कहा जा सकता है। जो संपूर्ण मानव समाज का प्रतिनिधि है वह एक जाति या एक वर्ग का कैसे हो सकता है। भारतीय संस्कृति भी विश्वधारा है। अत: शिव भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं, विसंगति में संगति तथा अनेकता में एकता के शाश्वत द्रष्टा हैं। शास्त्र शिव को विश्वरूप कहते हैं। शिव की उपासना इन तत्वों के रूप में सर्वत्र की जा सकती है। मंदिर और प्रतिमा के अभाव में जल या अग्नि, भूमिखंड या वायु का झोंका, सूर्य अथवा चंद्रमा अन्तर्मुख होकर आत्मदर्शन करने से ही शिव की पूजा संपन्न हो जाती है। वह साकार हैं या निराकार, अनगढ़ हैं या सुघर, कुरूप हैं या सुरूप, जन्मा हैं या अजन्मा, अकुलीन हैं या कुलीन, ये सब तर्क व्यर्थ और निस्सार हैं। वह तो अनुभव रूप हैं। इसलिए बाहरी पवित्रता और अपवित्रता का भी प्रश्न नहीं उठता। वैर-विरोध की कोई गांठ नहीं शिव तो अपवादों और उपेक्षाओं के विष को पी जाते हैं। कंठ में रख लेते हैं, पर जीभ पर आने नहीं देते और न ही हृदय तक ले जाकर वैर-विरोध की गांठ पालते हैं। वह नीलकंठ हैं पर बोल उनके उजले हैं। इस संबंध में समुद्र मंथन की यह बात उल्लेखनीय है। गंगाधर हिमालय को भी कहते हैं और शिव को भी। हिमालय यदि देवात्मा है तो शिव विश्वात्मा। धरती की उर्वरा शक्ति, औषधियों की संजीवनी, पर्यावरण का वरदान तो स्वर्ग का सोपान। गंगा तो सोपान-पंक्ति है, दिव्यलोक की नसैनी। शिव, गंगा और हिमालय के त्रिभुज में सिमटा हुआ बैठा है भारतवर्ष। इसलिए भारतभूमि विश्वसंस्कृति की जननी है। शिव जल पुरुष हैं, आदि जल पुरुष। भारत के पर्व और महोत्सव जल प्रधान हैं। शिव को जल धारा प्रिय है। वह यज्ञ संस्कृति का चिन्ह है जहां धधकते हुए अग्निकुंड में वैश्वानर की तृप्ति के लिए अखंड घृत की धारा छोड़ने का विधान है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
No comments:
Post a Comment