– डा. ओपी चौधरी

कोविड-19 ने एक महामारी के रूप में बहुत तबाही मचाई। पूरे विश्व में त्राहि- त्राहि मच गई। एक साल से भी अधिक का समय बीतने के बाद भी अभी दहशत और आशंका का माहौल है। भला हो उन वैज्ञानिकों का जिन्होंने बहुत ही कम समय में वैक्सीन का ईजाद कर लिया और बड़ी आबादी का टीकाकरण भी हो चुका है। लगातार टीके लगवाने को प्रोत्साहित भी किया जा रहा है, क्योंकि कोरोना से बचने के लिए सावधानी बरतने के साथ ही टीका आवश्यक है।



कोरोना महामारी का प्रभाव अपने देश में मार्च, 2020 में बढ़ने लगा तो भारत सरकार को लॉकडाउन की घोषणा करनी पड़ी। बहुत बड़ी संख्या में गांवों से रोजी - रोटी के लिए शहर गए कामगारों को अपने उसी गांव में शरण मिली जहां से वे चले गए थे, कितनों ने तो भुला ही दिया था की हम कहां से यहां तक की यात्रा किए हैं।
शहर की चकाचौंध में अतीत की स्मृतियां विलुप्त हो गई थी, लेकिन इस महामारी ने एक ही झटके में सब कुछ याद दिला दिया। गांव की पगडंडी, सरपत से भरी खाईं वाली खोर जो अब चकरोड और सड़क में परिवर्तित हो चुकी हैं, कुएं का स्थान आधुनिक पंप ले चले हैं। घर में ढिबरी और लालटेन का स्थान एलईडी ने ले लिया है। खाना बनाने के लिए लकड़ी के स्थान पर गैस या इंडक्शन आ गया है। आधुनिकता का लिबास पहनकर गांव भी इतरा रहा है।बावजूद इसके भी अभी कुछ हद तक भारतीय संस्कृति और सभ्यता को अपने में समेटे है, रीति रिवाजों,परंपराओं को सहेजे हुए है। गांव- देहात में मानवीय संवेदना का पुट अभी शेष है।
कोरोना वायरस ने अधिकांश घरों में अपनी दूसरी लहर में पाँव पसारना शुरू कर दिया तो जो कभी गाँव छोड़कर शहर की ओर रोजी-रोटी के लिए केवल रुख ही नहीं कर लिए थे बल्कि घरबारी हो गए थे। कुछ ने अपना आशियाना बना लिया तो कुछ किरायेदारी पर ही चैन से रह रहे थे। कुछ लोग झोपड़- पट्टियों में गुजर बसर कर रहे थे। कोरोना महामारी में सभी लोग अपने गाँव की ओर रुख कर लिये। लाकडाऊन की घोषणा हुई, निर्माण कार्य, मिलें, कार्यालय, कल-कारखाने सभी बंद होना शुरू हो गये। लोगों के रोजी- रोटी का ठिकाना न रहा तो लोग बहुत बड़ी संख्या में अपने-अपने परिवार के साथ गठरी-मोटरी लेकर पैदल ही चल दिए, अपने उस गांव देश जहां से वे निकलकर शहर गए थे।
उस समय बड़ा ही भयावह दृश्य था, चारो ओर सड़क पर आदमी ही दिख रहे थे। कुछ लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। कितने लोग घर पहुँचे तो लोगों ने उन्हें बहुत आत्मीयता से स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं जिन राज्यों से ऐसे लोग पुनः अपने-अपने घरों की ओर रुख किए, ऐसे लोगों को वहाँ की सरकारों ने उन्हें, उनके ही हाल पर छोड़ दिया। पूरा परिवार बच्चों के साथ उस मार्च-अप्रैल की तीखी धूप में बगैर भोजन-पानी के बेहाल हो गया।चारों ओर अफरा-तफरी का आलम था।
जब मामला 2020 का अंत आते-आते कुछ कमी की ओर चला और लोग फिर गांवों से शहर जाते, कुछ चले भी गए, तब तक कोविड-19 की दूसरी लहर मार्च, 2021 से समुद्र की लहरों से भी अधिक उफान मारते हुए आगे बढने लगी। पूरा विश्व एक बार फिर से इसके चपेट में भयंकर रूप से आ गया। इस बार बहुत ही अधिक संख्या में युवा एवं मध्य आयु वर्ग के लोग अपनी जान गवां बैठे। अबकी ज्यादा तांडव अपने ही देश में महामारी ने मचाया। केन्द्र सरकार और कुछ राज्यों में जहाँ चुनाव चल रहा था उन राज्यों की सरकारों ने इसके बढते हुए खतरे को या तो भांप नहीं पाये या अनदेखी किया। अन्य राज्यों की सरकारों ने भी शुरुआती दौर में कोविड-19 की दूसरी लहर को गंभीरता से नहीं लिया। उत्तर प्रदेश में पंचायतों के चुनाव का दौर अपने पूरे सबाब पर था।जब मामला हाथ से निकलने लगा और भारी संख्या में लोग इसकी चपेट में आने लगे। सरकारी अस्पतालों में इससे निपटने के लिए संसाधन नहीं थे, सुविधाएं नहीं थी। न तो बेड और न ही दवाएं। इतना ही नहीं आक्सीजन के अभाव में बहुतों ने दम तोड़ दिया। एक तरफ चिकित्सकों एवं पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी। ऐसे में सरकारों को निर्णय लेना पड़ा कि लोग गैर सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करायें।
वहाँ भयंकर रूप से एक तो पहले से ही जीवन रक्षक दवाइयों की कालाबाजारी तो दूसरी तरफ नकली दवाओं का कालाजाल था ही। वेन्टीलेटर की कमी दिखा कर तो कभी-कभी जाँच रिपोर्ट देरी से आने का बहाना बनाकर अधिकांश गैर सरकारी अस्पतालों में खूब लूटपाट हुई। महीनों तक वेन्टीलेटर पर मरीजों को रखा गया। घर वालों को देखने तक नहीं दिया गया। एक-एक मरीज से 5 से 6 लाख या उससे भी अधिक वसूला गया और फिर अंत में कह गया कि आपका मरीज नहीं हम बचा पाए सारी!
 इन सब स्थितियों में लोग अब गाँव की ओर रुख कर रहे हैं। कहते हैं कि-आओ फिर गाँव लौट चलें। गाँव में शहर से लौटे कुछ लोगों ने परिवार का खर्च चलाने के लिए कोई न कोई कार्य करना भी शुरू कर दिया है, नहीं तो अपने परंपरागत व्यवसाय में ही हाथ बंटा रहे हैं। सरकारों को भी चाहिए कि ऐसे लोगों का सर्वेक्षण कराकर उन्हें गाँव और आसपास के स्थानीय बाजारों में स्वरोजगार के साधन और उन्हें आत्म निर्भर बनाने के लिए सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधाएं उपलब्ध कराये ही साथ ही उन्हें सस्ते दर पर भूमि और धन उपलब्ध करायें जिससे लोग गांव की ओर रुख कर पुनः अपने-अपने घरों की ओर लौट आएं और वहीं अपनी रोजी रोटी का बेहतर प्रबंध कर सकें।
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों (एमएसएमई), कृषि, पशुपालन एवम् संबद्ध क्षेत्रों और सामाजिक क्षेत्र को सहायता प्रदान करने की जरूरत है, ताकि स्थानीय स्तर पर प्रवासी कामगारों को रोजगार मुहैया कराया जा सके। इससे शहरों का जनसंख्या घनत्व भी कम होगा, उनका प्रबंधन भी आसान होगा। वर्तमान परिवेश में भी अभी गाँव की आबो-हवा बहुत ही उपयोगी है, पर्यावरण में शुद्धता है। कृषि कार्य एवं संबंधित कार्यों में भी लोग जुड़ेंगे, उनका जीवन स्तर सुधरेगा। देश की अर्थ व्यवस्था भी पटरी पर आएगी।
कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र रहा है जिसने इस महामारी के दौर में भी हमारी अर्थ व्यवस्था को मजबूत बनाने का कार्य किया। स्वास्थ्य संबंधी परेशानी के कारण जैविक खेती की तरफ भी लोगों की रुझान बढ़ी है, इससे पर्यावरण तो स्वच्छ होगा ही लोगों को शुद्ध अन्न मिल सकेगा। दुग्ध, कुक्कुट और मत्स्य पालन को भी बढ़ावा मिलेगा। जो गाँव लोगों के परदेश चले जाने से सूने से लग रहे थे, वहां चहल-पहल शुरू हो गई। वे पुनः गुलजार होने लगे। गांव की चौपाल सजने लगी। आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न साकार होगा। प्रवजन पर भी अंकुश लगेगा।
लोग अपने गांव, हाट और कस्बों में ही रहकर अपना काम धंधा करने लगेंगे।इसमें सरकार की "एक जनपद, एक उत्पाद" की कार्ययोजना प्रवासी कामगारों के लिए मुफीद साबित होगी। गांवों के विकास से ही देश के विकास का पथ प्रशस्त होगा।
                                - एसोसिएट प्रोफेसर (मनोविज्ञान विभाग)
                                  श्री अग्रसेन कन्या पीजी कॉलेज वाराणसी।




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