आज धरा व्याकुल तृष्णा से, देख रही नभ नैन निहारे।
कब आओगे साजन सावन, ले कर बरसो मेघा प्यारे।
कब बरसोगे रिमझिम आकर,शोले भीतर दहन रहे हैं।
तरु तृणक खग कीट पतंगे, भीष्ण गर्मी  सहन  रहे हैं।।
पशु  पक्षी  बेचैन हो  हांफते, गहरी  छाया  ढूंढ रहे  है।
खोज रहे है नित पानी को, जाते गज बन झुण्ड  रहे हैं।
समीर  चले न पत्ता  हिलता, रह पपीहा  पीहू  पुकारे।
कब आओगे साजन सावन, ले कर बरसो  मेघा प्यारे।।
जल बिन सरिता सूख रही है, सूख  गए पोख़र तलैया।
मानव घर में सब दुबक गये, उष्ण सह सके न गौरैया।
जब से हरियाली रूठ गई,सुनसान पड़े हैं वन उपवन।
कुमलाए  है शाख पे पत्ते, नयन सुहाना रहा ना चमन।
कोयल  गाती   गीत  रसीले, नाचे  मयूर  हुए मतवाले।
हरियाली   चहुँओर   छाई, मेंढक  मोद  मनाते निराले।
इंद्रधनुष  सा  जीवन  निखरा, सप्त  रंग  के  रंग न्यारे।
कब आओगे साजन सावन, ले कर  बरसो मेघा प्यारे।
- शिव सन्याल
ज्वाली कांगड़ा (हि.प्र.)


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