- गिरीश्वर मिश्र
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं।)


कोविड की महामारी का भारत के सामाजिक जीवन और व्यवस्था पर सबसे गहन और व्यापक प्रभाव देश की शिक्षा व्यवस्था के संचालन को लेकर दिख रहा है जो मानव संसाधन के निर्माण के साथ ही युवा भारत की सामर्थ्य और देश के भविष्य से भी जुड़ा हुआ है। देश ने बड़े दिनों बाद शिक्षा में सुधार का व्यापक संकल्प लिया था और उसकी रूप रेखा बनाई थी, उसके कार्यान्वयन में अतिरिक्त विलम्ब हो रहा है। नई शिक्षा नीति के प्राविधान इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा की उड़ान के लिए पंख सदृश कहे जा सकते हैं परन्तु सब पर (अल्प) विराम लग गया है



कोविड के बाध्यकारी दबाव के परिणाम तात्कालिक रूप से बाधक हैं पर उसके कुछ पहलू तो अनिवार्य रूप से दूरगामी असर डालेंगे। बचाव और स्वास्थ्य की रक्षा की दृष्टि से तात्कालिक कदम के रूप में शैक्षिक संस्थानों को प्रत्यक्ष भौतिक संचालन से मना कर दिया गया और कक्षा की पढ़ाई और परीक्षा जहां भी संभव था आभासी (वर्चुअल) माध्यम से शुरू की गई। जहां ये साधन नहीं थे वहां औपचारिक पढ़ाई लगभग बंद सी हो गई थी। इस व्यवधान के चलते आए बदलाव को हुए अब दो साल के करीब होने को आए।
स्वाभाविक रूप से बौद्धिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास के लिए शिक्षा केंद्र में विद्यार्थी की भौतिक उपस्थिति विविध प्रकार की सीखने के अवसर और चुनौतियां देती रहती है जो उसके समग्र विकास के लिए बेहद जरूरी खुराक होती है। परन्तु इस महामारी के बीच विद्यालय की अवधारणा ही बदल गई। बहुत से विद्यार्थी आनलाइन प्रवेश, आनलाइन शिक्षा और आनलाइन परीक्षा से गुजरने को बाध्य हो गए। शिक्षा-केंद्र विद्यार्थी और शिक्षक से भौतिक रूप से दूर तो हुए ही पर उनके विकल्प में मोबाइल या लैप टाप की स्क्रीन पर लगातार घंटों बैठने से आंखों, कमर और हाथ की उँगलियों आदि में शारीरिक परेशानियां भी होने लगी हैं। शिक्षा पाने का प्रेरणादायी और रोचक अनुभव अब उबाऊ (मोनोटोनस) होने चला है। आभासी माध्यम पर होने वाली आनलाइन कक्षा की प्रकृति में अध्यापक-छात्र के बीच होने वाली अन्तःक्रिया अस्वाभाविक और असहज तो होती ही है उसमें विद्यार्थी की सक्रिय भागीदारी और शिक्षक द्वारा दिए जाने वाले फीडबैक भी कृत्रिम लगते हैं। विद्यार्थी की प्रतिभा को प्रदर्शित करने के अवसर कम होते जाते हैं। कई विद्यार्थी उसे वर्चुअल खेल ही मानते हैं। साथ ही वास्तविक परिस्थितियों में शिक्षक के समक्ष विद्यार्थी की उपस्थति होने में अनुशासन के लिए जरूरी अभ्यास का अवसर मिलता है। इससे एक सामाजिक परिस्थिति बनती है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नैतिकता का भी पाठ पढ़ाती है। इसके उलट आनलाइन कक्षा में कोताही की गुंजाइश अधिक हो गई है। लैपटाप और मोबाइल के उपयोग की अनिवार्यता ने सभी लोगों के अनुभव जगत को बदल डाला है। इसी बहाने आई सोशल मीडिया की बाढ़ ने, समय-कुसमय का ध्यान दिए बिना, वांछित और अवांछित हर किस्म का हस्तक्षेप शुरू किया है। ऐसे में अपरिपक्व बुद्धि वाले छोटे बच्चों की जिन्दगी में सोशल मीडिया के अबाध प्रवेश पर रोक-छेंक लगाना अब माता-पिता के लिए पहेली बन रहा है। शिक्षा के लिए जरूरी गंभीरता और सजगता में लगातार कमी आ रही है।
उपर्युक्त माहौल में शिक्षा की जो भी और जैसी भी परिभाषा, उसका सुपरिचित ढांचा और स्वीकृत प्रक्रिया थी, बदल गई। साथ ही प्राइमरी से उच्च शिक्षा तक की कक्षाओं के लिए नई आनलाइन प्रणाली के लिए हम पहले से तैयार न थे। यह तकनीकी बदलाव सिर्फ डिलीवरी के तरीके से ही नहीं जुड़ा है बल्कि दुनिया और खुद से जुड़ने और अनुभव करने के नजरिये से भी जुड़ा हुआ है। सीखने की प्रक्रिया को कम्यूटर के की बोर्ड को आपरेट करने तक सीमित करना विद्यार्थियों को सीखने और समझने की शैलियों में विविधता की भी अनदेखी करता है। एक बंधा-बंधाया तकनीक-नियंत्रित ढांचा उनके ऊपर थोप दिया जाता है और उसी में बंध कर ही सीखना-पढ़ना होता है। ऐसा करने में कल्पनाशीलता, प्रयोग और सृजन के अवसर कम होते जाते हैं। इन सबके बीच सूचना ही ज्ञान और अनुभव का पर्याय बनती जा रही है। हालांकि ऐसे आशावादी लोग भी हैं जो अब यह विश्वास करने लगे हैं कि भविष्य में सबकुछ आनलाइन व्यवस्था के अधीन हो जायगा। वे ऐसा मानने के लिए बड़े आतुर हैं क्योंकि वे उसे ही एकमात्र विकल्प मान बैठे हैं। पर यह कल्पना दूर की कौड़ी है और इस तरह की सोच शिक्षा को उसके मुख्य प्रयोजन से दूर ले जाने वाली है। दूसरी ओर कुछ यथास्थितिवादी शिक्षाविद भी हैं जो शिक्षा के पारंपरिक ढाँचे को ही ठीक समझते हैं। परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों में अधिकाँश लोग आनलाइन और आफलाइन दोनों तरीकों के मिले-जुले रूप (ब्लेंडेड ) को ही बेहतर मानते हैं। वे लोग बदलते वैश्विक परिदृश्य में नई तकनीकों का लाभ लेते हुए शिक्षा की संवादमूलक मानवीय प्रक्रिया को ही स्वाभाविक और मानवता का हितैषी मानते हैं।
आज की आन लाइन शिक्षा शिक्षा से जुड़े लोगों की बदलती आदतें अब तकनीकी व्यवस्था में उलझ रही हैं . नतीजा यह हो रहा है कि अब ध्यान देने , सोचने और आत्मसात करने की जगह डाउनलोड और उपलोड करने, गूगल में सर्च करने, स्क्रीन शेयर करने और पीपीटी तैयार करने जैसे कम्प्यूटरी कौशलों के अभ्यास और प्रबंधन के रुटीन को स्थापित करने में ही ज्यादा से ज्यादा समय बीत रहा है। तकनीकी की यह प्रबलता मानव मस्तिष्क को नए ढंग से काम करने के लिए प्रशिक्षित करने लगी है। कहना न होगा कि इंटरनेट से जुड़ते हुए देश और काल दोनों का अनुभव बदल जाता है। साइबर स्पेस में भ्रमण करना अद्भुत अनुभव होता है। इसमें सूचना प्रवाह का परिमाण और गति दोनों में जिस वेग से बढ़ रहा है वह चौंकाने वाला है और सब जानकारियों के तत्काल बासी होने के भय से भी ग्रस्त करता चल रह है। बुद्धि और विवेक की जगह तकनीकी की बढ़ती प्रतिष्ठा का चरम कृत्रिम बुद्धि (आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस ) के विभिन्न उपयोगों में प्रतिफलित हो रहा है। यही आज का सबसे ताजा 'क्रेज' बन रहा है। वस्तुत: तकनीक मानव मूल्यों की जगह नहीं ले सकती। ऐसा होना मानवीय इतिहास में दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा यदि हम सब कुछ मशीन के हाथों सुपुर्द कर दें। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सारे विश्व को तबाह कर रहे कोरोना विषाणु की पर्त दर पर्त उभरती कथा ज्ञान, तकनीक और संवेदनहीनता के विमानवीय गठबंधन को ही बयान करती जान पड़ रही है जिसका और छोर नहीं दिख रहा है।
यह बात भी साफ़ जाहिर है कि कोविड की विपदा की मार समाज के विभिन्न वर्गों पर एक जैसी नहीं पड़ी है। आनलाइन शिक्षा के जरूरी संसाधनों की व्यवस्था के लिए आर्थिक साधन सबके पास न होने से उस तक पहुँच समाज में एक ऐसे डिजिटल डिवाइड को जन्म दे रही है जो संपन्न परिवार से आने वाले विद्यार्थियों और कमजोर वर्ग के विद्यार्थियों के बीच मौजूद खाई को और ज्यादा बढ़ाने वाली है। मुश्किल यह भी है कि कोरोना की मार से गरीब को ज्यादा चोट पहुंची है, ख़ासतौर पर अनौपचारिक श्रमिकों और दिहाड़ी पर काम करने वालों की हालत ज्यादा खस्ती हुई है। इस तरह वंचित और कमजोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा की समस्या उनकी आर्थिक असुरक्षा से जुड़ी हुई है जिसका प्रभावी नीतिगत समाधान अभीतक नहीं बन सका है। आनलाइन पढ़ाई की उपलब्धता की स्थिति में पूरे देश में बड़ी विविधता है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
नई शिक्षानीति प्रकट रूप से सामान्य हालत में भी आनलाइन पाठ्यक्रम के उपयोग को बढ़ावा देती है और अपेक्षा करती है कि विद्यार्थी कुछ सीमित संख्या में अपनी रुचि के पाठ्यक्रम दूसरी संस्थाओं से भी आनलाइन पढ़ाई जरूर करे। प्रस्तावित शिक्षा नीति इस अर्थ में लचीली है कि छात्र-छात्राओं को अपनी रुचि, प्रतिभा और सर्जनात्मकता को निखारने का अवसर मिल सकेगा। इस तरह की पढ़ाई से मिलने वाली क्रेडिट स्वीकार्य होगी और डिग्री की पात्रता से जुड़ जायगी। देखना है की नई शिक्षानीति का मसौदा कार्य रूप में किस रूप में व्यावहारिक धरातल पर उतरता है। इसके लिए सबसे जरूरी है कि शिक्षा की आधार-संरचना में निवेश किया जाय और अध्यापकों की भर्ती और विद्यालयों को जरूरी सुविधाओं से लैस किया जाय।
कोरोना के आतंक ने शिक्षा में जो दखल दी है उसने शिक्षा की पूरी प्रक्रिया को हिला दिया है। उसने बोर्ड की परीक्षाओं की पुरानी प्रणाली को भी ध्वस्त कर दिया है और फौरी तौर पर विगत वर्षों में मिले अंकों की सहायता से एक फार्मूला बनाया गया है जो मूल्यांकन का एक काम चलाऊ नुस्खा है। हमारा समाज और हमारी राजनीति अभी भी शिक्षा के महत्त्व को देखने समझने की जरूरत को तरजीह नहीं दे पा रहा है। शिक्षा उसकी वरीयता सूची से अभी भी बाहर ही है। आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी के पुनराविष्कार के लक्ष्य शिक्षा को समुन्नत किये बिना कोई अर्थ नहीं रखते। यदि इन्हें सार्थक बनाना है तो हमें शिक्षा के प्रति उदासीनता के भाव से उबरना होगा। शिक्षा एक अवसर है जिसकी उपेक्षा करना आत्मघाती होगा।

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