- शिवचरण चौहान, कानपुर
(लेखक स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं।)
पर्यावरण वैज्ञानिकों के लिए यह अच्छी खबर है कि भारत में मेढकों का पुनरागमन हो रहा है। वर्ष 2020 में मेढकों की जनसंख्या में करीब 60 प्रतिशत वृद्धि हुई है। लॉकडाउन और किसानों द्वारा खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग न्यूनतम करने पर मेढकों की पृथ्वी पर वापसी हुई है। यह बहुत अच्छी खबर है क्योंकि मेंढक अपने वजन के बराबर मच्छर कीट, भुनगे, कनखजूरे, मकड़ी आदि कीट रोज खा जाता है। मेंढक मलेरिया और डेंगू फैलाने वाले मच्छरों को सफाचट कर जाता है। मेंढकों के ना होने से डेंगू और मलेरिया फैलते हैं।
मेंढक विनाश का सबसे बड़ा कारण विकसित देशों द्वारा मेंढक की टांगों का खाया जाना है। अकेले फ्रांस जैसे देश को भारत प्रतिवर्ष 1000 करोड़ कीमत की मेंढक की टांगों का निर्यात करता है। फ्रांस में मेंढक की टांग वहां के नागरिक बड़े चाव से खाते हैं। वर्ष 2020 में भारत में लॉकडाउन के चलते फ्रांस सहित करीब 20 देशों को भारत मेंढक की टांगों का निर्यात नहीं कर पाया। शिकारियों ने मेंढक पकड़े ही नहीं तो निर्यात कहां से होता?
वरना भारत भर में बोरी लिए हाथ में टार्च लिए गांव-गांव, गली-गली, शहर-शहर मेंढक के टांगों के व्यापारी मेंढक बोरियों में भरकर ले जाते थे और विदेशों को मेंढक को की टांग का निर्यात करते थे।
मेंढक हमारे पर्यावरण के लिए बहुत जरूरी उभयचर है। भारत में मेंढकों की करीब 110 प्रजातियां पाई जाती है। अमेरिकन म्यूजिकल नेचुरल हिस्ट्री की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में मेंढक की 6482 प्रजातियां खोजी गई है। इनमें पेड़ों में रहने वाले मेंढक भी शामिल है।
भारत में केरल में सर्वाधिक में मेढक पाए जाते थे। केरल के वर्षा वनों में करीब 2 इंच के छोटे मेंढक पाए गए थे जो सिर्फ अंगूठे पर बैठ सकते थे। कांच मेंढक भी पाए जाते हैं जिनकी त्वचा पारदर्शी होती है।
सन 2000 से मेढकों की संख्या में आई भारी गिरावट से भारत सरकार के कृषि वैज्ञानिक चिंतित थे। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों के पास अभी मेंढक की बढ़ती जनसंख्या के बारे में कोई जानकारी नहीं है पर उनका कहना है कि अगर मेंढक जनसंख्या में बढ़ रहे हैं तो यह बहुत अच्छी बात है। भारत सरकार ने बहुत पहले ही मेंढको के मारने और उनकी टांगों का निर्यात करने पर रोक लगा रखी है। फिर भी चोरी-छिपे भारत से विदेशों को मेंढकों का निर्यात किया जाता है।
भारत में दादुर और मेंढक दो प्रजातियां बहुत पाई जाती हैं। दादुर या भेक या टोड उस मेंढक को कहते हैं जो जमीन पर रहता है। इसकी त्वचा सूखी होती है और चेहरा अर्धवृत्त आकार होता है। इसके अगले और पिछले पैरों में उंगलियों के बीच खाल की झिल्ली भी नहीं होती। जबकि मेंढक के पैरों में तैरने के लिए खाल की झिल्ली होती है। मेंढक हमारे विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए शोध का विषय रहे हैं। इस कारण भी बहुत मेंढक मारे गए। कुछ समय पहले वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया था जिसमें मेंढक की खाल मनुष्य की खाल में प्रत्यारोपित की जाती थी। इस कारण लाखों मेंढ़क मार डाले गए। पर यह प्रयोग सफल नहीं हो सका। अगस्त 1987 में इसे रोक लिया गया था।
मेंढक की टांग का निर्यात 1959 शुरू हुआ था। उस वर्ष मेंढक की 53.5 टन टांगें यूरोप और अमेरिका भेजी गई थीं। सन 1981 में यह धंधा आसमान छूने लगा। कुल निर्यात था 4386 टन, इसका आधे से ज्यादा भाग यूरोपीयन इकानोमिक कम्युनिटी वाले देशों में गया। सबसे बड़ा ग्राहक था नीदरलैंड। नीदरलैंड ने 1700 टन मेढक की टांगें खरीदी थी। बाद में कनाडा, सऊदी अरब, जापान और संयुक्त अरब अमीरात भी टांगें जाने लगीं। निर्यात के लिए मेंढक अधिकतर कलकत्ता, हैदराबाद और कोचिन के सीमावर्ती इलाकों में चुने जाते रहे हैं। टागों का वजन मेंढक के पूरे वजन का
एक तिहाई ही होता है इसलिए सन 1981 के आंकड़ों का मतलब यह है कि उस साल कोई 900 टन मेढक...मारे गए। इस आंकड़ों में वे असंख्य मेढक शामिल नहीं है जो चुने जाने के बाद और कटाई धुलाई करने वाले स्थानों तक पहुंचाने के दौरान मर गए थे।
इस निर्यात से देश को 12 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा मिली। यह 1981में देश के कुल जल उत्पाद निर्यात का 12 प्रतिशत थी। लेकिन इस पेशे से पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ा है, वह शायद ज्यादा महंगा साबित हुआ। कई जगहें फसले खराब हुईं । कीटनाशकों पर ज्यादा खर्च करना पड़ा। मेढ़क प्रतिदिन अपने ही वजन के बराबर कीड़े पतंगे खाता है। इसका मतलब यह है कि उस साल उतने मेंढको के मरने से कोई 9000 टन के करीब कीड़े और मच्छर बचे रहे गए। उनके कारण पौधों में कई बीमारियां फैली और
मलेरिया का प्रकोप भी बढ़ा। मेंढक के संहार और उसके कारण फसल पर पड़ने वाले प्रभाव से चिंतित होकर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी से इस मामले पर अध्ययन करवाया। सोसायटी ने भी इस धंधे को प्रतिबंधित करने की बात कही।
जब भारत में जनता पार्टी की सत्ता आई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री
मोरारजी देसाई ने बंदरों के व्यापार पर और मेंढक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया था। वैज्ञानिकों के साथ हुई गोष्ठी के बाद मेंढकों की टांगों के निर्यात पर भी रोक लगाने पर अबूटबर 1983 में भारतीय वन्य जीवन बोर्ड ने इस मुद्दे को उठाया तो व्यापार मंत्रालय आड़े आ गया। विदेश व्यापार मंत्रालय ने इस मांग को ठुकरा दिया था। व्यापार मंत्रालय का तर्क था
कि उसने 1983 84 के निर्यात कोटा को घटाकर 1981 के आंकड़े 90 प्रतिशत पर उतार लिया है, यानी मेंढकों की टांगें तो कटती रहीं।
फिर पर्यावरण विभाग ने राना मेढकों को वन्य जीवन संरक्षक अधिनियम में रख लिया। बाद में मेंढक की टांगों के निर्यात के लिए लाइसेंस जारी किए जाने लगे।
वाणिज्य मंत्रालय जल उत्पाद के निर्यात से विदेशीमुद्रा कमाने की चिंता में डूबा रहा। इसके अलावा मेंढक पकड़ने वालों के संगठन केरल तवला तोडिलाली कांग्रेस ने रात को चलने वाले इस पेशे पर रोक लगने के खिलाफ त्रिवेंद्रम में सचिवालय के सामने टर् रातें मेंढकों के साथ प्रदर्शन भी किया।
मेंढक पकड़ना बहुत ही निर्मम काम है अंधेरा छाने के बाद बोरी और गैसबत्ती हाथ में लेकर सात आठ लोग बाहर निकल आते हैं । केरल के कुट्टनाड जैसे क्षेत्र में एक रात में लाखों मेंढके मारे रहे हैं। तेज रोशनी में मेंढक की आखें बिलकुल चौधियां जाती है उसे आसानी से पकड़कर बोरी में भर लेते हैं ।
पर्यावरण विभाग का सुझाव है कि निर्यात के लिए यहां-वहां से मेंढक पकड़ने से अच्छा है कि उन्हें इसी काम के लिए एक ठीक जगह में पाला जाए। सन 2015 से 2018 तक करीब 20 देशों में 3000 करोड़ डालर का व्यापार भारत में मेंढक की टांगे बेचकर किया था। भारत के विदेश व्यापार
मंत्रालय को भी इस देश के लिए कीमती विदेशी मुद्रा केमाने की बड़ी चिंता है, पर पर्यावरण की चिंता नहीं है।
इस बार करीब 60 प्रतिशत मेंढ़कों की जनसंख्या में वृद्धि देखी गई है। यह हमारे लिए पर्यावरण के लिए किसानों के लिए कृषि वैज्ञानिकों के लिए हर्ष दायक खबर है। जो काम लाखों करोड़ों रुपए खर्च करके सरकार करवाती और मेढक का संरक्षण प्रजनन करवाती वह काम अपने आप हो गया।
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