आशा और निराशा का है मेल,
खुशी और गम का है काॅकटेल!
कहीं खुशियों की लड़ी है,
कहीं आफत बड़ी है;
युवाओं की तो निकल पड़ी है।
झूम रहे हैं मस्ती में,
मानों दूजा नहीं है कोई बस्ती में।


वहीं सूखे खेतों वाले दीन हीन किसान
कभी हाथ जोड़े शुक्र करें रब का
कभी मांगें पनाह
प्रभू बस कीजिए!
ना कीजिए घर तबाह।
खेतों को चाहिए घटाओं से नीर
वही नीर,
घर आते बन जाता कलेजे का तीर?
टपकते आशियानों में
लगा है घुटना भर पानी
उबीछते घरवाली
हुई जा रही पानी पानी
जाने कब निकल गई उसकी जवानी?
अभी ही आंखें धंस गई हैं
बालों को आ गई है सफेदी,
पड़ी रहती है बीमार सरीखी!
उसपर ये आफत की बारिश
जाने कहां से आ गई है???
रत्ती भर नहीं जगह सिर छुपाने को
थककर चूर बदन है मजबूर-
बैठ कोने में रात बिताने को।
चुल्हा भी नहीं है फुंका,
सोएंगे सब आज भी भूखा।
और करेंगे भी तो क्या करेंगे?
किस्मत में लिखा है भूखे मरेंगे!
बारिश नहीं तो फसल नहीं,
बारिश हो तो जले चुल्हा ही नहीं।
दोनों में फाकाकशी है,
बारिश की भाषा हमने यही समझी है।

मो. मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार।

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