ललित गर्ग

लोकतंत्र में सफलता की कसौटी है- संसद की कार्रवाही का निर्विघ्न संचालित होना। संसद के मानसून सत्र की शुरुआत करते हुए इस बात की आवश्यकता व्यक्त की गई, क्योंकि समूचे विपक्ष ने इस सत्र को हंगामेदार करने की ठान ली है। जहां तक महंगाई, कोरोना एवं किसान आन्दोलन जैसे मुद्दों को उठाने एवं इन विषयों पर सरकार से जबाव मांगने का प्रश्न है, यह स्वस्थ एवं जागरूक लोकतंत्र की अपेक्षा है। लेकिन इन्हीं मुद्दों को आधार बनाकर कर जहां संसद की कार्रवाई को बाधित करने की स्थितियां है, यह अलोकतांत्रिक है, अमर्यादित है।

मानसून सत्र लोकतांत्रिक समझौते के साथ समझ को विकसित करने का उदाहरण बने, यह अपेक्षित है। समझौते में शर्तें व दवाब होते हैं जबकि समझ नैसर्गिक होती है। इन्हीं दो स्थितियों में जीवन का संचालन होता है और इन्हीं से राष्ट्र, समाज और लोकतंत्र का संचालन भी होता है।
यह तो सर्वविदित है कि विपक्ष गत कुछ समय की कतिपय राजनीतिक घटनाओं से उत्साहित एवं आक्रामक हुआ है। इन्हीं बुलन्द हुए हौसलों में विपक्ष की तरफ से संसद में जिन मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश होगी, उनमें कोरोना की दूसरी लहर के कुप्रबंधन, महंगाई, किसान आंदोलन के मुद्दे प्रमुख हैं। विपक्ष इन मुद्दों पर दोनों सदनों में चर्चा की मांग करेगा। मौजूदा माहौल में सरकार के लिए चर्चा से इनकार करना मुश्किल होगा, लेकिन विपक्ष को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि अधिक आक्रामक रुख अख्तियार कर वह संसद में सिर्फ हंगामा करने और कार्यवाही को बाधित करने तक सीमित न रह जाए।
विपक्ष के तेवरों को देखते हुए यही प्रतीत हो रहा है कि वह दोनों सदनों में सरकार की घेराबंदी के किसी मौके को नहीं छोड़ना चाहेगा, ऐसी स्थितियां बनना देशहित में नहीं है। विरोध या आक्रामकता यदि देशहित के लिये, ज्वलंत मुद्दों पर एवं समस्याओं के समाधान के लिये हो तभी लाभदायी है। लोकमान्य तिलक ने कहा भी है कि -‘मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट कार्य के लिये सारे पक्षों का एक हो जाना जिंदा राष्ट्र का लक्षण है।’ राजनीति के क्षेत्र में आज सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है- विपक्षी दलों का सत्तापक्ष के प्रति विरोध या आक्षेप-प्रत्याक्षेप करना। सत्ता पक्ष को कमजोर करने के लिये संसदीय कार्रवाई को बाधिक करना और तिल का ताड़ बनाने जैसी स्थितियों से देश का वातावरण दूषित, विषाक्त और भ्रान्त बनता है।
फिलहाल देश कोरोना के संक्रमण काल से गुजर रहा है अतः सबसे बड़ी जरूरत यह है कि संसद में कोरोना से निपटने की वह पुख्ता नीति तय हो जिससे चालू वर्ष के दौरान प्रत्येक वयस्क नागरिक को वैक्सीन देकर संक्रमण की भयावहता को टाला जा सके। बढ़ती महंगाई पर काबू पाने की भी सार्थक बहस हो एवं महंगाई पर नियंत्रण की व्यवस्था हो।
19 जुलाई से 13 अगस्त तक चलने वाले सत्र के दौरान सरकार की तरफ से 17 विधेयक पेश करने की योजना बनाई गई है तथा पहले से लंबित 38 विधेयकों में से नौ को पारित किया जाना है। यदि विपक्ष हंगामा करने को अपना मकसद नहीं बनाता और सत्तापक्ष उसकी ओर से उठाए गए मुद्दों को सुनने के लिए तत्पर रहता है तो संसद का यह मानसून सत्र एक कामकाजी सत्र का उदाहरण बन सकता है।
संसद राज्यों की सरंक्षक एवं मार्गदर्शक भी है और जब हम भारत के विभिन्न राज्यों की तरफ नजर दौड़ाते हैं तो सर्वत्र बेचैनी, समस्याओं एवं अफरातफरी का आलम देखने को मिलता है। कहीं धर्म के नाम पर हिंसा तो कहीं आतंकवाद को शह देने की कोशिशें हो रही है। कहीं किसानों का आन्दोलन पिछले सात महीने से राजधानी के दरवाजे पर चल रहा है तो कहीं जानबूझकर स्थितियों को धार्मिक रंग दिया जा रहा है। बंगाल के चुनावों में एवं उसके बाद की हिंसक घटनाएं चिन्ता का कारण बनी है। भले ही वहां भाजपा को हार को मुंह देखना पड़ा, जिससे निश्चित रूप से विपक्ष का हौसला बढ़ा है।
एक बात और, विपक्ष आक्रामक रहकर भले ही अपनी राजनीतिक बढ़त बनाने की कोशिश करे, लेकिन इसके बावजूद वह विधायी कार्य में कोई अड़ंगा न डाले। किसी भी तौर पर यह भविष्य की नजीर नहीं बननी चाहिए क्योंकि एक व्यक्ति की हिमाकत पूरे लोकतन्त्र को प्रदूषित नहीं कर सकती। हमारी संसद तभी लोकतन्त्र में सर्वोच्च कहलाती है जब यह अपने ही बनाये गये नियमों का शुचिता, अनुशासन एवं संयम के साथ पालन करती है। अगर हम संसद में बैठे राजनीतिक दलों की हालत देखें तो वह भी बहुत निराशा पैदा करने वाली लगती है। कहने को कांग्रेस विपक्षी पार्टी है मगर जिन राज्यों में वह सत्ता में है उनमें आपस में ही इसमें सिर फुटव्वल का वातावरण बना हुआ है। पंजाब में कांग्रेस पार्टी नवजोत सिंह सिद्धू एवं मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के बीच हास्यास्पद संग्राम का अखाड़ा बनी हुई है।
इन जटिल हालातों में स्वयं के जीवन के लिए एवं दूसरों के साथ जीने के लिए दो चीजें आवश्यक हैं, वे हैं समझौता व समझ। देश-विदेश के सभी लेनदेन-व्यापार, परस्पर सम्बन्ध समझौता व संधि के आधार पर ही चलते हैं। हर स्तर पर एक समझौता होता है, नीतिगत और व्यवस्थागत। बल्कि पूरे जीवन को ही समझौते का दूसरा नाम कहा गया है। जहां भी समझौता नहीं, वहां अशांति और असंतुलन/बिखराव हो जाते हैं।
पर समझ जहां परस्पर बन गई और समझ के आधार पर ही सब संचालित हो रहा हो, वहां शांति है, राष्ट्रीयता है और संतोष है। समझ स्वयं पैदा होती है। समझौता पैदा किया जाता है। पर जहां-कहीं समझ का वरदान प्राप्त नहीं है वहां समझौता ही एकमात्र विकल्प है। प्रजातंत्र में प्रदत्त अधिकारों की परिधि ने समझ की नैसर्गिकता को धुंधला दिया है। अतः समझौता ही संचालन शैली बन चुका है। संसद का मानसूत्र समझ को विकसित करने का माध्यम बने, इसके लिये सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही पहल करनी होगी, तभी लोकतंत्र जीवंतता प्राप्त कर सकेगा।


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