नृत्य करती भावनाएं

देह के टेढ़े-मेढ़े आंगन में

स्वच्छन्दता की ज्वाला धधक रही 

मेरे अंतर्मन के प्रांगण में 

कठपुतली सा बना वजूद

 नाच रही घर आंगन में 

 ख़्वाहिशें सुलग रही है मेरी 

उस द्वार से इस द्वार के प्रांगण में 

मृत होती संवेदनाएं 

व्याभिचार के आंगन में 

तड़प रही हूं मीन सी 

निर्दयता के प्रांगण में 

छलावा से चल रहे मेरे अपने 

मुझे मेरे ही आंगन में 

क्रंदन करती पीड़ा सहती 

विवशता के प्रांगण में।

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