चिंताजनक हो रहा पर्यावरण असंतुलन

डा. जगदीश सिंह दीक्षित
- (टीडी कालेज जौनपुर के प्राध्यापक (रिटा.) हैं।)


पर्यावरण संतुलन बना रहे इसके लिए आवश्यक है कि पृथ्वी के कम से कम तीस प्रतिशत भू-भाग पर वृक्ष अवश्य होने चाहिए। आज स्थिति ठीक इसके विपरीत है। मुश्किल से दस प्रतिशत भू-भाग पर ही वृक्ष होंगे। कारण स्पष्ट है पर्यावरण असंतुलन का मैदानी इलाके हों या फिर पर्वतीय क्षेत्र, वृक्षों की कटाई बड़े ही निर्मम तरीके से व्यापक पैमाने पर हुई है। गांव में बगीचे रह नहीं गये और नये बाग लगे नहीं। औद्योगीकरण एवं नगरीयकरण ने जो उनके सटी सीमा पर गाँव थे जहाँ आम, अमरूद, करौंदा, फालसा, नीबू के बड़े-बड़े बगीचे थे वे सभी विकास की भेंट चढ़ गये। लाखों गाँव और उनके बाग-बगीचे, खेत-खलिहान शहरों में विलीन हो गये।



इन गांवों की स्थिति यह हो गई है कि वे न तो शहरी सुविधाओं से युक्त हो पाये हैं न ही गाँव के ही। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि- जिस दिन भारत के गाँव समाप्त हो जायेंगे उस दिन हिन्दुस्तान ही समाप्त हो जाएगा। इस कथन के पीछे उनका भाव था कि- भारत की संस्कृति गावों में बसती है। वही संस्कृति हिन्दुस्तान को अक्षुण्ण बनाये रख सखने में सक्षम है।
पर्वतीय क्षेत्रों में भी पेड़ों की कटान खूब  हुई है। खैर मनाइए कि स्वर्गीय सुन्दर लाल बहुगुणा जी का कि पर्वतीय लोगों को जागरूक करके चिपको आन्दोलन चलाकर वृक्षों की जो वन माफियाओं द्वारा अंधाधुंध कटाई हो रही थी उसे बहुत हद तक रोकने में कामयाब रहे। इस चिपको आन्दोलन में महिलाओं की बहुत बड़ी  भागीदारी रही। पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्षों के अंधाधुंध कटाई का ही एक प्रमुख कारण है कि आज वहाँ भूकंप, हिम स्खलन एवं चट्टानों के खिसकने जैसी आपदाएं बार-बार हो रही हैं। टिहरी गढ़वाल में जो बाँध बना और अन्य स्थानों पर जो पन बिजली परियोजनाओं का कार्य पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर हुए जिसका स्वर्गीय सुन्दर लाल बहुगुणा विरोध करते रहे।
उसके बावजूद भी इन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के निर्माण का कार्य नहीं रोका गया। परिणाम सामने है कि पूरा का पूरा पर्यावरण असंतुलन पर्वतीय क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर हुआ है। इसीलिए बार-बार भूस्खलन जैसी दर्दनाक घटनाएं हो रही हैं, जिसके कारण हजारों जिंदगियां असमय ही काल कवलित हो रही हैं। इतना ही नहीं भूस्खलन के कारण आए दिन सैकड़ों भवन ज़मींदोज़ हो रहे हैं। इस सबके पीछे वही पर्यावरण असंतुलन ही एक मुख्य कारण है।
हम सभी ने इस कोरोना महामारी में देखा कि न जाने कितने लोगों ने ऑक्सीजन के अभाव में अपने प्राण गवाएं हैं, इस ऑक्सीजन के अभाव में न जाने कितने परिवार उजाड़ गए, हजारों लोगों ने अपनों को खोया है; ये सब मानव द्वारा प्रकृति और पर्यावरण से की गयी छेड़छाड़ का ही नतीजा है। मानव जाति ने जगह-जगह से प्रकृति का सत्यानाश किया है। इस धरा से पेड़-पौधों को नष्ट किया है। पहाड़ों और ग्लेशियर्स के साथ छेड़छाड़ की है। नदियों के मूल बहाव को रोका है, कई जगह तो इस धरती पर नदियां नाला बनकर रह गयी हैं। नदियों में इंसानी जाति ने इतना प्रदूषण और गन्दगी उडेली है कि इससे कई बड़ी-बड़ी नदियां अपनी अंतिम सांसें गिन रही हैं। अगर हम प्रकृति की सांसें रोकेंगे तो प्रकृति तो अपना रूप दिखाएगी ही। जितना इंसानी जाति ने प्रकृति के साथ गलत किया है, अगर उसका एक प्रतिशत भी प्रकृति हमसे बदला लेती है तो इस धरती से इंसान का नामोंनिशान मिट जाएगा। जितना क्रूर हम प्रकृति और पर्यावरण के लिए हुए हैं अगर जिस दिन प्रकृति ने अपनी क्रूरता दिखाई उस दिन इस धरती पर प्रलय होगी। इसलिए जरूरी है हम प्रकृति और पर्यावरण की मूलता को नष्ट करने की जगह उसका संरक्षण करें, नहीं तो अभी ऑक्सीजन की कमी से लोगों ने अपने प्राण गवाए हैं; आने वाले दिनों में पीने के पानी की कमी से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।
हमने ऑक्सीजन तो कृत्रिम बना ली लेकिन पीने के पानी को बनाने की कोई कृत्रिम तकनीक नहीं है। इसलिए समय रहते हमें प्रकृति की ताकत को समझना होगा नहीं तो बहुत देर हो जायेगी। हमें ये भी समझना होगा कि हम प्रकृति के स्वरुप को अपने हिसाब से नहीं बदल सकते, अगर हमने अपने हिसाब से प्रकृति और पर्यावरण के स्वरुप को बदलने का प्रयास किया तो यह आने वाली पीढ़ियों और इस धरती पर रहने वाली मानव जाति और करोड़ों जीव-जंतुओं, पक्षियों के लिए नुकसानदेह होगा।
पर्यावरण संतुलन स्थापित करने के लिए अभियान चलाकर प्रत्येक वर्ष जुलाई-अगस्त माह में ही फलदार एवं छायादार वृक्षों का ही रोपड़ किया जाना चाहिए। इन वृक्षों की सेवा और सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी ऐसी कार्य दायी अभिकरण को देना चाहिए जो पाँच साल तक इनकी सुव्यवस्थित ढंग से देखभाल कर सके।

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