- ममता कुशवाहा
पिछले कुछ वर्षों में भारत एक गहरी सामाजिक चुनौती से जूझ रहा है गंभीर और हिंसक अपराधों में किशोरों की बढ़ती भागीदारी। दिल्ली के विजय विहार क्षेत्र में घटी हाल की त्रासदी, जहाँ एक ऑटो-रिक्शा चालक की हत्या के आरोप में पाँच नाबालिगों को गिरफ्तार किया गया, इस उभरती प्रवृत्ति का एक विचलित करने वाला उदाहरण है। यह घटना कोई अलग-थलग पड़ने वाला अपवाद नहीं, बल्कि उन सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक विफलताओं का प्रतीक बनकर उभरती है जो अनेक युवाओं को अपराध की कठोर दुनिया की ओर धकेल रही हैं। जिस आयु में किशोरों के हाथों में किताबें, सपने और संभावनाएँ होनी चाहिए, उसी आयु में उनका हथियारों से लैस होकर फुटपाथों, गलियों और सुनसान सड़कों पर भटकना किसी भी समाज के लिए भयावह संकेत है। यह समय है जब हमें इस बात का ईमानदार मूल्यांकन करना होगा कि परिवार, विद्यालय, समुदाय और राज्य किस प्रकार अपने युवाओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं और कहाँ वे असफल हो रहे हैं।
दिल्ली की घटना कई कठोर सच्चाइयाँ उजागर करती है। रोज़मर्रा की जीविका कमाने वाला एक व्यक्ति कुछ किशोरों की योजनाबद्ध डकैती का निशाना बन गया। विरोध करने पर उस पर बेरहमी से चाकुओं से हमला किया गया और अंततः उसने दम तोड़ दिया। जांच के दौरान किशोरों ने स्वीकार किया कि वे नशे की लत में डूबे हुए थे और अपनी लत को पूरा करने के लिए पैसों की तलाश में थे। यह अपराध क्षणिक उत्तेजना या आवेग का परिणाम नहीं था, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति थी, यह इस बात का संकेत है कि किस प्रकार कुछ किशोर सामान्य जीवन से कटकर हिंसा और दुष्चक्रों के दलदल में फँसते जा रहे हैं।
इस बढ़ते संकट की जड़ें गहरी और बहुआयामी हैं। पारिवारिक ढांचे का कमजोर होना, शिक्षा की निरंतर गिरती गुणवत्ता, सामाजिक निगरानी का क्षरण और आर्थिक असुरक्षा- ये सभी मिलकर किशोरों को जोखिमपूर्ण रास्तों पर धकेलते हैं। समाज के कई युवा गरीबी, बेरोज़गारी, पारिवारिक कलह, नशे के संपर्क और दिशाहीन वातावरण में बड़े होते हैं। ऐसे परिवेश में गलत संगत, अपराध की ग्लैमराइज़ेशन वाली डिजिटल सामग्री और सोशल मीडिया की अनियंत्रित दुनिया उनके नैतिक धरातल को और अधिक विचलित कर देती है। हिंसा और दंडहीनता का यह सामान्यीकरण किशोरों के भीतर एक खतरनाक विश्वास पैदा करता है कि अपराध न केवल आसान है, बल्कि लाभकारी भी।
आज का शिक्षा तंत्र भी इस चुनौती को कम करने में विफल रहा है। विद्यालयों में मूल्य-आधारित शिक्षा, जीवन-कौशल प्रशिक्षण और भावनात्मक परामर्श को वह प्राथमिकता नहीं मिलती जिसकी आवश्यकता है। परीक्षा-केन्द्रित संस्कृति और अंकों की होड़ ने चरित्र निर्माण को पीछे धकेल दिया है। परिणामस्वरूप, एक ऐसा किशोर वर्ग विकसित हो रहा है जिसमें सहानुभूति, आत्म-अनुशासन और सामाजिक उत्तरदायित्व की कमी दिखाई देती है। यह कमी जब कठोर सामाजिक-सांस्कृतिक दबावों के साथ जुड़ती है, तो अपराध की ओर बढ़ने की संभावना अनेक गुना बढ़ जाती है।
कानूनी ढांचे में भी पर्याप्त अस्पष्टताएँ मौजूद हैं। किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन के बाद 16–18 वर्ष की आयु के किशोरों पर जघन्य अपराधों के लिए वयस्कों की भाँति मुकदमा चलाने का प्रावधान तो है, लेकिन इसका क्रियान्वयन कई स्तरों पर अनिश्चित और असंगत है। किशोर अदालतों, कल्याण अधिकारियों और सुधार संस्थानों के बीच सामंजस्य का अभाव एक बड़ी समस्या है। कई सुधार केंद्रों की वास्तविक स्थिति अत्यंत चिंताजनक है- भीड़भाड़, प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की कमी, अपर्याप्त पुनर्वास कार्यक्रम और मनोवैज्ञानिक सहायता का अभाव। सुधार गृह, सुधार के स्थान होने के बजाय कई बार अपराध के उन्नत प्रशिक्षण केंद्र बन जाते हैं। यह स्थिति इस मूल प्रश्न को जन्म देती है कि क्या गंभीर अपराधों में लिप्त किशोरों के साथ केवल आयु के आधार पर नरमी बरती जानी चाहिए, या समाज की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए उनका कठोर लेकिन सोच-समझकर किया गया पुनर्वास आवश्यक है? स्पष्ट है कि केवल दंड या केवल सहानुभूति- दोनों ही अकेले पर्याप्त नहीं हो सकते।
किशोर अपराधों में वृद्धि व्यापक सामाजिक-आर्थिक असमानताओं और नीतिगत कमियों का भी प्रतिबिंब है। युवाओं में बेरोजगारी के उच्च स्तर, व्यावसायिक प्रशिक्षण की कमी, मानसिक-स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव और सार्थक मनोरंजन व कौशल-विकास के सीमित अवसर- ये सभी कारक किशोरों को असंतुलित और खतरे से भरे विकल्पों की ओर धकेलते हैं। उद्देश्यहीन, निराश और बेरोज़गार किशोर अक्सर तात्कालिक रोमांच, त्वरित धन और नशे की गिरफ्त में आकर अपराध की दुनिया के आसान शिकार बन जाते हैं।
इस चुनौती से निपटने के लिए बहु-स्तरीय और व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक है। परिवारों को सशक्त बनाने के लिए अभिभावक मार्गदर्शन कार्यक्रम, सामुदायिक परामर्श केंद्र और स्थानीय स्तर पर सहयोगी नेटवर्क विकसित किए जाने चाहिए। विद्यालयों को मूल्य शिक्षा, मानसिक-स्वास्थ्य परामर्श और जीवन-कौशल प्रशिक्षण को मुख्यधारा का हिस्सा बनाना होगा। सरकार को खेल सुविधाओं, पुस्तकालयों, युवा केंद्रों, व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों और नशामुक्ति कार्यक्रमों में निवेश बढ़ाना चाहिए। पुलिस बलों में विशेष किशोर इकाइयों का गठन और सामुदायिक पुलिसिंग अपराध-निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। साथ ही, सुधार गृहों का पुनर्गठन, प्रशिक्षण आधारित पुनर्वास, मनोवैज्ञानिक थेरेपी और समाज में नियंत्रित पुनर्संलग्नन प्रक्रियाएँ अनिवार्य होनी चाहिए।
नाबालिगों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति हमारे समाज के सामने एक चेतावनी है- एक ऐसी चेतावनी जिसे अनदेखा करना भविष्य के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। यह समस्या केवल अपराध की नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक असफलताओं की कहानी भी है- असमानता की, उदासीनता की, और उन दरारों की, जिन्हें समय रहते भरा नहीं गया। भारत आज उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ उसे तय करना है कि वह अपने किशोरों को अँधेरों में भटकने देगा या उनके लिए एक सुरक्षित, संवेदनशील और अवसरों से भरा भविष्य गढ़ेगा। अपराध के यह बढ़ते पदचिह्न हमें याद दिलाते हैं कि समय रहते किया गया हस्तक्षेप न केवल संभव है, बल्कि अत्यावश्यक भी।
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