रूठा है तो मना लेंगे...!


- ललिता जोशी

रूठना और मनाना जीवन की एक विधा है या यूं कहें ये जीवन का एक रस है जिसका आस्वादन हम सभी करते रहते हैं ।  ये रूठना मनाना ठीक वैसे ही है जैसे की  नमक  के बिना भोजन फीका लगता है । वैसे रूठना और मनाना घर के सदस्यों  पति -पत्नी ,पिता -पुत्र , माँ -बेटा ,माँ -बेटी और प्रेमी -प्रेमिका में चलता रहता है । एक कहावत भी है कि जहां दो बर्तन होंगे तो वो खटकेंगे भी । अरे ये तो इन्सानों में आम बात है लेकिन पालतू जानवर भी अपने मालिक से जब रूठ जाते हैं तो  खाना-पीना तक छोड़ देते हैं ।बेचारे मम्मी पापा को अपने पालतू को मनाना पड़ता है । ठीक ऐसे ही प्रेमी -प्रेमिका भी कभी एक दूसरे से रूठकर बातचीत करना छोड़ देते हैं । फिर शुरू होता है मान-मनौव्वल का दौर । कभी तौफ़े दिये जाते हैं तो कभी दिल खोल कर पार्टी देते हैं । वैसे तो जिस बात पर रूठम-राठी होती है उसे मान लिया जाए तो  बात बन ही जाती है । फिर भी न माने तो फिर तो ! बस आफत ही आफत मनाने वाले की । मनाने वाले की भी एक ही ख्वाइश होती है कि रूठा यार मान जाए ।
रूठना तो सर्वव्यापी और सार्वभौमिक है । देश में ही एक राज्य दूसरे राज्य से कभी जल बटवारे को लेकर रूठ जाते हैं तो कभी भाषा के मुद्दे पर रूठेंगे । इतना ही नहीं देश भी आपस में रूठते हैं अगर उनकी शर्तें न मानी जाएँ तो । आज के विकसित देश आपस में युद्ध कर रहें हैं अपनी -अपनी बातें मनवाने के लिए । एक कहता है उस देश से तेल मत ख़रीदो लेकिन मुझे से  सामान खरीदो नहीं तो हम टेरीफ़ लगा कर आपकी अर्थव्यवस्था की ऐसी की तैसी कर डालेंगे । चाहे अपनी अर्थव्यवस्था भी डूब जाए कोई बात नहीं । अगर पड़ोसी की बकरी मारनी है तो अपनी दीवार तो तोड़नी ही पड़ेगी । आज नजर उठा कर देख लीजिये पड़ोसी देश भी रूठे हुए हैं । देश की जनता देश के शासकों से रूठी पड़ी है। इसके ऊपर अब आ गई है जेन जी । जेन जी जब रूठती है तो वो सत्ता को अर्श से उठाकर फर्श पर लिटा देती है । नेपाल से लेकर बांग्लादेश ,श्रीलंका और मेडागास्कर तक की सत्ता पलटा दी । इतना ही नहीं सत्ताधारियों को अपनी जान बचाकर देश छोड़ भागना पड़ा । इस जेन जी का रूठना बड़ा भारी पड़ता है , इसे मनाना है तो इनकी मांगें मान लो या फिर जान बचा कर भाग लो ।
राजनीतिक हलकों में अगर कोई नेता रूठ जाये तो पूछो मत न जी । इनका रूठना मनाना तो टिकिट अजी हाँ टिकिट को लेकर होता है ।ये टिकिट टू लोकतन्त्र का मंदिर है । अगर टिकिट अपने मूल दल से प्राप्त न हो पाये तो सबसे पहले उम्मीदवार  रूठ जाएंगे मुंह फूला लेंगे और बदमाश बच्चे की तरह लोट -पोट होकर अपनी बात मनवा लेते है अगर फिर भी बात नहीं मानी तो फिर उसके लिए अंतिम क्षण तक लड़ना-झगड़ना  करेंगे । इसके बाद भी अगर बात न बने तो अगला दांव होता है विपक्षियों से मिल चुनाव के टिकिट हासिल कर लेते हैं। जीत गए तो सत्ता के गलियारों में प्रविष्टि पक्की । वैसे पद किसे मिलेगा ये तो पार्टी प्रधान के ऊपर होता है । यदि पार्टी को बहुमत नहीं मिला और उम्मीदवार जीत गया तो भी उस पर दूसरे दल की नज़र रहती। पता नहीं किस रूप में उसका उपयोग और प्रयोग करना पड़ जाये। किसी को पद देकर मनाना  पड़ता है तो कभीसहयोगी राजनीतिक दल चुनाव के दौरान सीटों को लेकर रूठ जाते हैं तो उन्हें सीटों के आनुपातिक बटवारे से मनाना पड़ता है ।


अगर इन सब पैंतरों से भी जब मनाया  नहीं जा सके तो फिर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जाता है । वो है ईडी, डीडी, सीबीआई आदि का अस्त्र । इसके आगे तो अच्छे -अच्छे भी तीर की तरह सीधे हो जाते हैं । प्यार से माने तो माने नहीं तो दंड के भी से मानेंगे। रूठा यार ऐसे तो मान ही जाएगा ।
यहाँ एक गीत याद आ रहा है
“रूठा है तो माना लेंगें बिगड़ा है तो माना लेंगे .........
फिर भी न माना तो खिलौना देके मना लेंगे
(मुनिरका एंक्लेव, दिल्ली)

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