देश में सामूहिक जातीयता असहिष्णु क्यों ?
- प्रो. नंदलाल
विगत कुछ वर्षों में देश की सामूहिकता को बड़ा आघात लगा है। हिंदू विशेषकर सनातनपंथी समाज में सशक्त आपसी संसंबद्धता रही है और हिंदू समाज सहिष्णु रहता आया है पर पिछले कुछ दशक में इस समाज में एक अजीब बेचैनी देखी जा सकती है।एक वर्ग दूसरे वर्ग को नीचा करने या दिखाने में कोई अवसर नहीं छोड़ता। किसी मूर्ख व्यक्ति द्वारा यदि कोई बात किसी जाति के विचारों के विरोध में अकारण बोल दी गई तो उस जाति के लोग समूह में विरोध में आ खड़े होते हैं। यह किसी विशेष जाति के बारे में नहीं लिखा जा रहा है अपितु सभी जाति के बारे में ऐसी बात देखने को मिलती है। इससे समाज में विषाक्त माहौल खड़ा होने में समय नहीं लगता कारण कि सोशल मीडिया का जमाना है और इस जमाने में तिल को कैसे ताड़ बनाया जाता है यह आसानी से सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है।
अभी हाल ही में एक संत के द्वारा मनुस्मृति को देश का प्रथम संविधान कह देने पर उनका जबरदस्त विरोध हुआ और मात्र उन्हीं का नहीं अपितु देश के एक विशेष समुदाय को मनुवादी कह कर संबोधित किया जा रहा था।खैर मनुवादी शब्द आज से नहीं कहा जा रहा अपितु यह शब्द देश की आजादी के बाद से ही प्रचलन में आ गया।पर यह उचित नहीं है।
संकीर्ण स्वार्थों के चलते इस प्रकार के प्रतिक्रियावादी शब्द सामने आते रहते हैं और हर जाति के नेताओं द्वारा ऐसे शब्दकोश का अनुसंधान किया जाता रहा है।ऐसे शब्द समाज को विशेषकर हिंदू या सनातन को कमजोर करते आए हैं।यह न तो किसी जाति या धर्म में अन्वेषित होते हैं बल्कि यह राजनैतिक कुचक्रों की चाल से निकलते हैं।समाज तो अपने जीने खाने का जरिया ढूंढता रहता है और उसी में परेशान रहता है। लेकिन चंद स्वार्थी लोग अपनी पॉपुलैरिटी को बढ़ाने के लिए समूचे समाज को दांव पर लगा देते हैं।
जबसे हिंदुस्तान अस्तित्व में आया होगा तबसे आजतक किसी समुदाय में इतनी विकृति नहीं आई होगी कि कोई किसी समूह या समुदाय द्वारा श्रम से इकट्ठे किए गए संपत्ति को जबरिया छीन ले। भविष्य में ऐसा दिखता नहीं है कि इस प्रकार की किसी विकृति के लिए स्थान बन सके हां अपनी राजनीति की धार को तेज किया जा सकता है।कुछ नेता जातिगत जनगणना की बात करके ऐसी आग को और धधकाना चाहते हैं और इस नाम पर समाज को दिवास्वप्न में डाले रखना चाहते हैं।पर इससे क्या होगा?हां इतना होगा कि यह पता चलेगा कि जनसंख्या में कौन कितना आगे है।इससे क्या हासिल होगा।इससे सिर्फ सामाजिक द्वेष और आपसी कलह बढ़ेगी इससे ज्यादा कुछ नहीं।
आधुनिक युग विज्ञान और प्रौद्योगिकी से लबरेज है।बहुत सम्भल कर आगे बढ़ना होगा।भीड़ कुछ समय के लिए दिखती है पर आगे निकलने वाले आगे की ही सोचते हैं।समाज में यह दरार क्यों आ रही है।हिंदू समाज का हर अंग अलग अलग राग क्यों आलाप रहा है। समाज में जब शिक्षा का प्रसार होता है तो समाज आगे बढ़ता है न कि दकियानूसी में फंसता है।पर भारतवर्ष में तो उल्टा ही हो रहा है।जो लोग पढ़ लिख रहे हैं वे अन्य लोगों को बहलाकर नारेबाजी और हड़ताल में सम्मिलित कर रहे हैं,अपनी राजनीति चमका रहे हैं और सीधे साधे लोग मुकदमेबाजी में फंस रहे हैं।समाज शिक्षित हो रहा है तो समाज में सहिष्णुता बढ़नी चाहिए पर सब कुछ उलट पलट रहा है।
भारतीय लोकतंत्र की एक विशेषता है कि इसमें कोई व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है।वह अनपढ़ है या पढ़ा लिखा है इसका कोई अर्थ नहीं है।ऐसे लोग चुनाव जीतकर संसद पहुंच चुके हैं और पहुंच भी रहे हैं। हर जाति में नेता हो गए और ये नेता अपने समाज में ऐसी चिंगारी लगा रहे हैं जिससे वर्ग विभाजन की समस्या बढ़ रही है। इस पर कैसे नियंत्रण पाया जाय यह एक गंभीर समस्या बन रही है। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश की सरकार ने जातीय उन्माद फैलाने वाली कुछ गतिविधियों पर रोक लगाई है जो प्रशंसनीय कदम कहा जा सकता है। यह हाल के वर्षों में कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। इसका एक कारण सांप्रदायिकता भी हो सकता है।
हिंदू मुस्लिम संबंधों में भी गिरावट महसूस की जा रही है जिससे भारतीय संस्कृति में अपकर्ष की शुरुआत हो चुकी है। विपक्षी दल इसका लाभ लेकर भारतीय जन मानस विशेषकर पिछड़े, मुस्लिम, दलित वर्ग में एक नई अभिवृति का निर्माण कर रहे हैं। उन्हें हर हाल में समाज के सामान्य वर्ग का विरोध करना है भले ही कोई कारण प्रत्यक्षतः नजर आ रहा हो या नहीं।किसी शायर ने अपने शेर में कहा है
जिसके कारण फसाद होते हैं
उसका कुछ अता पता ही नहीं।
धन के हाथों बिके हैं सब कानून
अब किसी जुर्म की कोई सजा ही नहीं।
सरकारों को इसकी चिंता करनी होगी कि समाज विशेषकर हिंदू समाज का मानसिक विभाजन भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। किसी भी तरह की सांप्रदायिकता भारतीय संस्कृति की मजबूती को कमजोर करेगा। इसकी रक्षा अवश्यंभावी है। राजनीति वोट तक सीमित रहनी चाहिए न कि हमारी संस्कृति और सभ्यता की बखिया उधेड़कर। हम सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट की तरफ बढ़ रहे हैं न कि बसुधैव कुटुंबकम की तरफ। सभी राजनीतिक दलों को इस पर विचार करना होगा अन्यथा हम वहां पहुंच जाएंगे जहां से वापसी असंभव होगी।
(महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट, सतना, मप्र)
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