सोच के स्तर पर बदल रही बिहारी राजनीति
- उमेश चतुर्वेदी
बिहार की राजनीति जाति और धर्म से कभी अलग नहीं रही। आजादी के फौरन बाद के चुनावों में जाति का असर कम रहा, क्योंकि तब स्वाधीनता संग्राम के दौरान अर्जित नैतिक मूल्यों की आभा और स्मृति बनी हुई थी। लेकिन बाद के दिनों में यह लगातार कम होता चला गया। जाति और धर्म की राजनीति तब भी होती थी, लेकिन उस पर स्वाधीन भारत को बनाने के लिए सर्वसमावेशी सोच का आवरण बना रहा। लेकिन मंडल आयोग की छाया में उभरी राजनीति के बाद जाति और धर्म का खुला-खेल शुरू हो गया। जातीय गोलबंदी खुलेआम होने लगी। बिहार के वैशाली स्थित लिच्छवी गणराज्य ने जब लोकतांत्रिक मॉडल को अपनाया था, तब शासन सौंपने वाले हाथों की योग्यता उनकी न्याय प्रियता, उनकी प्रशासनिक कुशलता और निष्पक्षता थी। इसे बिडंबना ही कहेंगे कि जिस बिहार की धरती ने छठी सदी ईसापूर्व यानी करीब ढाई हजार साल पहले शासन के बेहतरीन मॉडल को अपनाया, उसी धरती पर वैधानिकता के आधार पर लागू लोकतंत्र ने जाति, धर्म और क्षेत्रवाद को खुद में समाहित कर लिया। लेकिन इस बार के चुनावों में लोकतंत्र का जातीय और धार्मिक मॉडल को किंचित चोट पहुंचती दिख रही है।
बिहार गर्व करते नहीं अघाता कि उसकी धरती पर लोकतंत्र का जन्म हुआ। इसी लोकतंत्र की छांव में बिहार और प्रकारांतर से देश को आगे बढ़ाने का सपना जयप्रकाश नारायण ने देखा था। जब भारतीय लोकतंत्र पर आपातकाल की काली छाया पड़ी तो जेपी के नाम से विख्यात जयप्रकाश नारायण की अगुआई में बिहार की ही धरती ने बिगुल फूंक दिया। इस बिगुल ध्वनि को देश ने सुना और जेपी के पीछे हो लिया। जिसकी परिणति आपातकाल के काले दिनों के अंत और बाद में आपातकाल थोपने वाले हाथों यानी इंदिरा गांधी की लोकतांत्रिक हार के रूप में देश और दुनिया ने देखा। जेपी की राजनीति में जाति और धर्म का आधार नहीं था। जेपी के पीछे पहले बिहार और बाद में तकरीबन उत्तर भारत जब चल पड़ा, तब देश और धर्म की बातें पीछे छूट गई थीं। तब देश को बनाने और लोकतंत्र को बचाने के लिए हर धर्म, हर जाति और हर समूह ने अपने जातीय, धार्मिक और स्थानीय हितों को किनारे रख दिया और देश के लिए आगे चल पड़े थे। दुर्भाग्यवश उसी दौर में उभरे नेताओं ने जाति का सबसे बड़ा खेल खेला। बिहार की जातीय राजनीति को बढ़ावा देने में उसी दौर में उभरे नेताओं ने सबसे ज्यादा दिया। आज की बिहारी राजनीति के चमकते सितारे लालू यादव, नीतीश कुमार, शिवानंद तिवारी, नंद किशोर यादव, आदि उसी दौर में उभरे चेहरे हैं।
बाद के दौर में बिहार के चुनाव की चर्चा जाति और धर्म की बुनियाद को आधार बनाए असंभव मानी जाने लगी। वैसे यह रोग तकरीबन हर राज्य की राजनीति को लगा है। कहीं इसकी तासीर कम दिखती है तो कहीं कम, लेकिन यह हर जगह है। लेकिन बिहार के इस चुनाव में प्रशांत किशोर के जरिए कम से कम जातीय गोलबंदी की बात को लगाम पहुंची है। प्रशांत किशोर का चाहे सत्ता पक्ष या विपक्ष, जितना भी उपहास उड़ाने की कोशिश करे, उन्होंने बिहारी राजनीति को नया चेहरा जरूर दिया है। प्रशांत ब्राह्मण परिवार के बेटे हैं। उनकी राजनीतिक आभा से परेशान बिहार का सत्ता पक्ष भी है और विपक्ष भी। सत्ता पक्ष की बजाय विपक्ष की ओर से उन्हें ब्राह्मण बताने की कोशिश खूब हुई। लेकिन यह कार्ड चल नहीं पाया। दरअसल मंडलवाद की राजनीति के उभार के बाद सवर्णवाद की बात करने की हिम्मत भी दिखाना मुश्किल है। सवर्ण तबके की जातियां और उनके नेता अपनी जाति की बात कर लें तो उन पर जातिवादी ठप्पा लगाकर ट्रोल किया जाता रहा है। वैसे आज का जो विमर्श है, उसमें सवर्ण तबके की अपनी जाति की बात करना जातिवादी होना है और पिछड़े एवं दलित जातियों की बात करना उनका सशक्तीकरण एवं प्रगतिवाद का बेहतरीन उदाहरण माना जाता है।
जेपी के बाद बिहार की तकरीबन हर जातियों में जिस राजनेता की व्यापक स्वीकृति रही, वे कर्पूरी ठाकुर हैं। दिलचस्प यह है कि आज के बिहार के सत्ता पक्ष और विपक्ष के बड़े नेता हैं, सब कर्पूरी ठाकुर का नाम ही जपते हैं। यह बात और है कि कर्पूरी ठाकुर जैसी सादगी, उनके जैसी सर्वसमावेशी राजनीति की राह उनके चेलों ने नहीं अपनाई। बिहार की राजनीति के दोनों दिग्गज चेहरे जेपी और कर्पूरी की राजनीति में संकीर्णता का आधार नहीं नहीं था। वे जातीय गोलबंदी की बजाय सर्वसमावेशी राजनीति की बात करते थे। आज की राजनीति और सामाजिक संतुलन के लिए आरक्षण व्यवस्था की जरूरत को कर्पूरी ठाकुर स्वीकार करते थे, लेकिन उनकी आरक्षण व्यवस्था में किसी खास वर्ग को लक्षित करने और उस पर निशाना साधने का भाव नहीं था। उन्होंने आरक्षण का जो फॉर्मूला दिया था, उसमें पिछड़ा वर्ग को बारह प्रतिशत, अति पिछड़े वर्ग को आठ प्रतिशत, महिलाओं के लिए तीन प्रतिशत और गरीब सवर्णों के लिए तीन प्रतिशत का प्रावधान किया था।
चाहे लोहिया की आरक्षण को लेकर सोच रही हो या फिर कर्पूरी का मॉडल, दोनों का मकसत सामाजिक विकास की दौड़ में पीछे रहे वर्ग को आगे रहे वर्गों के समकक्ष खड़ा करना और इस तरह बराबरी का बोध लाना था। यही वजह रही कि इन नेताओं के पीछे समाज का बड़ा हिस्सा खड़ा होता था, जहां जाति और धर्म की सीमाएं टूट जाया करती थीं। इसका यह मतलब नहीं था कि तब जातीय गोलबंदी खत्म हो चुकी थी। लेकिन यह जरूर है कि ऐसा करने वाली ताकतों को बढ़ावा नहीं मिलता था। लेकिन जेपी और कर्पूरी के बाद स्थितियां बदल गईं।
बिहार के मौजूदा चुनावों में प्रशांत किशोर के अभ्युदय ने जातीय गोलबंदी की इस रूढ़ि को तोड़ने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है। प्रशांत किशोर ने अपना दल बनाने के बाद एक गलती जरूर की। उन्होंने तब जरूर कहा था कि मुस्लिम समुदाय को तरजीह देंगे। ऐसा करके वे एक तरह से धार्मिक गोलबंदी की पारंपरिक अवधारणा को जरूर शह दे रहे थे। लेकिन शायद बाद में उन्हें इस गलती का अहसास हुआ और उन्होंने इस सोच का मुजाहिरा फिर नहीं किया।
प्रशांत किशोर के बिहार की राजनीति में उभार के बाद मुद्दों की बात हो रही है। महिलाओं को आर्थिक सहयोग देने का मौजूदा नीतीश सरकार का फैसला हो या फिर तेजस्वी द्वारा हर घर को एक सरकारी नौकरी देने का वादा, प्रशांत किशोर की राजनीतिक शैली का दबाव माना जा सकता है। प्रशांत किशोर बार-बार बिहार की बदहाली का सवाल उठाते हैं,वैश्विक स्तर पर मजदूर सप्लाई करने वाले राज्य के रूप में बिहार की स्थापित छवि पर सवाल उठाते हैं, बिहार को नई राह पर लेकर चलने की बात करते हैं, जाति और धर्म की बात नहीं करते हैं, बिहार की शिक्षा व्यवस्था को मुद्दा बनाते हें तो बिहार के पढ़े-लिखे युवाओं और बिहार की मौजूदा छवि से परेशान लोगों को उनकी बात अपील करती है।
पिछली सदी के साठ के दशक तक प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से देश का पांचवां बड़ा राज्य रहे बिहार की बदहाली का सवाल जब वे उठाते हैं तो बिहार का हित चाहने वाले लोगों को वह बात अपील करती है। यही वजह है कि उनके साथ हर वर्ग के लोग दिखते हैं। इसलिए बिहार की राजनीति में जाति की चर्चा पीछे छूट जाती है। खास दल के खास जातीय आधार की मान्यता के बीच से उसी जाति के बीच से जब कुछ आवाजें बिहार के पक्ष में उस दल विशेष के विरोध में उभरती हैं तो बिहार की राजनीति पर नजर रखने वालों को हैरत होती है। यह बदलाव प्रशांत किशोर की राजनीति का कमाल कहा जा सकता है।
इसका यह मतलब नहीं है कि प्रशांत किशोर के पीछे समूचा बिहार उठ खड़ा हुआ है। दकियानुसी की हद तक जाति और धर्म के खेमे में बंट चुकी बिहार की राजनीति की इस सोच में इस बार के चुनावों में खरोंच लगती दिख रही है। इस लिहाज से प्रशांत किशोर, जेपी और कर्पूरी ठाकुर की परंपरा में खड़े होते नजर आ रहे हैं। बिहार की सोच में बदलाव की यह बयार बनी रही तो तय मानिए, बिहार ही नहीं देश की राजनीति बदलने की दिशा में आगे बढ़ सकती है।



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