तेल पर कूटनीति का तूफान
- ममता कुशवाहा
भू-राजनीतिक समीकरणों के बदलते परिप्रेक्ष्य में वैश्विक ऊर्जा व्यापार आज सबसे अस्थिर दौर से गुजर रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते लगे प्रतिबंधों और पश्चिमी देशों की द्वैध नीतियों ने अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल बाज़ार को झकझोर कर रख दिया है। इस परिस्थिति का सबसे गहरा प्रभाव उन देशों पर पड़ रहा है जो अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए आयात पर निर्भर हैं। भारत, जो विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक और उपभोक्ता देश है, इस भूचाल के केंद्र में खड़ा है।
हाल ही में नाटो के महासचिव मार्क रुटे ने भारत, चीन और ब्राज़ील जैसे देशों को चेतावनी दी कि यदि उन्होंने रूस के साथ व्यापारिक संबंध जारी रखे, तो उन्हें सेकेंडरी सैंक्शंस यानी द्वितीयक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है। भारत ने इस चेतावनी का स्पष्ट प्रतिकार किया, जिसे एक संप्रभु राष्ट्र के आर्थिक हितों की रक्षा करने की दिशा में एक उचित कदम माना जा सकता है। जब पश्चिमी राष्ट्र अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए प्रतिबंधों के बावजूद रूस से व्यापार करते हैं, तो भारत को नैतिकता के कठघरे में खड़ा करना न केवल दोगलापन है बल्कि एक प्रकार का भूराजनीतिक दमन भी है। भारत का यह रुख इस बात को दर्शाता है कि वह अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के साथ समझौता नहीं करेगा, भले ही वैश्विक शक्तियाँ कितनी ही दबाव बनाएं।
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि भारत की तेल नीति किसी राजनीतिक झुकाव पर आधारित नहीं है, बल्कि यह उसकी ऊर्जा आवश्यकताओं, किफायती आपूर्ति और दीर्घकालिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए तय होती है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद जब यूरोप ने रूसी तेल और गैस से दूरी बनानी शुरू की, तब भारत ने अवसर का लाभ उठाते हुए भारी छूट पर रूसी तेल का आयात बढ़ा दिया। जनवरी-जून 2025 के बीच भारत ने प्रतिदिन औसतन 1.75 मिलियन बैरल रूसी तेल का आयात किया, जो देश की कुल आपूर्ति का लगभग 35% रहा। जून में यह आंकड़ा बढ़कर 2 मिलियन बैरल प्रतिदिन हो गया।
रूसी तेल के आयात ने भारत को दोहरे लाभ दिए- एक तो इससे ऊर्जा लागत में भारी कमी आई और दूसरा देश के चालू खाता घाटे पर नियंत्रण में मदद मिली। परंतु अब जब अमेरिका की ओर से 100% द्वितीयक प्रतिबंधों की धमकी दी जा रही है, और अगर NATO इसे लागू करता है, तो भारत जैसे देशों के लिए संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी हाल ही में कहा कि यदि रूस और यूक्रेन के बीच 50 दिनों में कोई शांति समझौता नहीं हुआ, तो वे रूस के व्यापारिक साझेदारों पर सख्त शुल्क और प्रतिबंध लगाएंगे।
इन प्रतिबंधों की प्रकृति केवल उन कंपनियों तक सीमित नहीं होगी जो रूसी संस्थाओं से सीधे व्यापार करती हैं, बल्कि ये प्रतिबंध उन सभी देशों की समग्र वाणिज्यिक गतिविधियों को प्रभावित कर सकते हैं जो रूस से व्यापार करते हैं। इसीलिए भारत की चिंता जायज़ है क्योंकि इससे उसका न केवल ऊर्जा आपूर्ति चैन बाधित होगा, बल्कि उसका समग्र निर्यात भी प्रभावित हो सकता है। 2024-25 में भारत-रूस द्विपक्षीय व्यापार $68.7 अरब तक पहुंचने की उम्मीद है, जिसमें अधिकांश हिस्सा तेल आयात का होगा।
तेल मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने स्पष्ट किया है कि भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए कई विकल्पों की तलाश कर रहा है। उन्होंने कहा कि भारत 40 से अधिक देशों से तेल आयात करता है और यदि रूस से आपूर्ति बाधित होती है, तो वह गुयाना, ब्राज़ील, कनाडा और अन्य देशों की ओर रुख कर सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि रूसी तेल के विकल्प सस्ते नहीं हैं। रूस से आयातित तेल भारत को $4 से $5 प्रति बैरल सस्ता पड़ता है। यदि भारत को पारंपरिक पश्चिम एशियाई देशों जैसे सऊदी अरब, इराक या UAE से अधिक मात्रा में तेल खरीदना पड़े, तो यह तेल काफी महंगा होगा, जिससे भारत का आयात बिल बहुत अधिक बढ़ जाएगा। इससे न केवल चालू खाता घाटा बढ़ेगा, बल्कि रुपए पर भी दबाव पड़ेगा, और देश की मुद्रास्फीति दर में भी वृद्धि हो सकती है।
भारतीय रिफाइनरियों के लिए यह बदलाव तकनीकी दृष्टिकोण से भी चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि विभिन्न ग्रेड के तेल को शोधन के लिए अलग-अलग संयोजन की आवश्यकता होती है। भारत की कई रिफाइनरियाँ खास तौर पर रूसी 'उरल' ग्रेड तेल के अनुसार अनुकूलित की गई हैं। यदि आयात स्रोत बदले जाते हैं, तो न केवल संचालन लागत बढ़ेगी बल्कि गुणवत्ता और निर्यात उत्पादों की प्रतिस्पर्धा भी प्रभावित हो सकती है।
इतिहास गवाह है कि जब भी वैश्विक तेल संकट आया है, भारत ने विवेकपूर्ण नीति अपनाई है। चाहे वह 1991 का खाड़ी युद्ध हो या 2003 का इराक युद्ध, भारत ने ऊर्जा आपूर्ति की निरंतरता बनाए रखी है। हाल में भी भारत ने इज़राइल-ईरान संघर्ष के समय में वैकल्पिक आपूर्तियाँ जुटाकर स्थिति संभाली थी। परंतु इस बार संकट अधिक जटिल है क्योंकि इसमें केवल युद्ध या भूगोल की बात नहीं है, बल्कि वैश्विक शक्ति संतुलन, व्यापार प्रतिबंध और कूटनीति का संगम शामिल है।
निश्चित रूप से अमेरिका और नाटो का उद्देश्य रूस की अर्थव्यवस्था को कमजोर करना है क्योंकि रूस का एक बहुत बड़ा हिस्सा जी डी पी का ऊर्जा निर्यात पर निर्भर है। यदि भारत और चीन जैसे देश रूस से तेल लेना बंद कर देते हैं, तो यह रूस की आर्थिक रीढ़ को तोड़ सकता है। परंतु इसका दूसरा पक्ष यह है कि इस नीति से ऊर्जा पर निर्भर देशों की कमर भी टूट सकती है। इसके अतिरिक्त, भारत और अमेरिका के बीच चल रही व्यापार वार्ता भी इस संकट से प्रभावित हो सकती है। यदि भारत पर द्वितीयक प्रतिबंध लगाए जाते हैं, तो यह विश्वास का संकट उत्पन्न करेगा, जिससे रणनीतिक और व्यापारिक संबंधों में दरार आ सकती है। अमेरिका यदि वास्तव में भारत को चीन के प्रभाव से अलग एक रणनीतिक साझेदार मानता है, तो उसे भारत की ऊर्जा जरूरतों और रणनीतिक स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए।
इस समूची स्थिति में भारत के सामने तीन मुख्य रास्ते हैं- पहला, रूस से सस्ते तेल का आयात जारी रखना और संभावित प्रतिबंधों का आर्थिक प्रबंधन करना; दूसरा, पश्चिमी देशों के साथ सामंजस्य बिठाते हुए वैकल्पिक आपूर्तियों की ओर रुख करना, भले ही वह महँगा हो; और तीसरा, दीर्घकालिक ऊर्जा नीति पर फिर से विचार करना जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा, हरित हाइड्रोजन, घरेलू उत्पादन और रणनीतिक भंडारण को प्राथमिकता दी जाए।
आज रूसी तेल पर संकट केवल एक आर्थिक या राजनीतिक मुद्दा नहीं है, यह भारत की ऊर्जा सुरक्षा, भू-राजनीतिक संतुलन, विदेश नीति की स्वतंत्रता और आर्थिक स्थिरता का व्यापक प्रश्न बन चुका है। इस चुनौती को भारत को अत्यंत सावधानी, चतुराई और दीर्घदर्शिता से सुलझाना होगा। रणनीतिक विवेक और साहसिक नीति-निर्माण ही भारत को इस 'तेल-तूफान' से सुरक्षित बाहर निकाल सकते हैं।
(स्वतंत्र टिप्पणीकार, शिक्षिका)
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