वनों से अवैध कब्जे हटाना कितना तर्कसंगत
- कुलभूषण उपमन्यु
पिछले दिनों माननीय उच्च न्यायालय द्वारा वनों से अवैध कब्जे हटाने की मुहिम शुरू की गई, जिस पर किसी को एतराज करने का कोई कारण नहीं, बल्कि इसे स्वागत योग्य कदम ही कहा जाएगा। किन्तु कब्जा हटाने के लिए क्या सेब के पेड़ काटना जरूरी था। पेड़ तो पेड़ है, जो हवा शुद्ध करने, पानी बचाने और मिट्टी संरक्षण का कार्य तो कर ही रहा था। अच्छा होता यदि सेब के पेड़ों को यथावत रख कर उनका प्रबंधन बागवानी विभाग या वन विभाग के हवाले कर दिया जाता और सेब के फलों से प्राप्त आय विभागीय आय के रूप में सरकारी खजाने में जमा होती। जब तक पेड़ जिंदा रहते, तब तक पेड़ों के प्रबंधन और रखरखाव के लिए रोजगार भी पैदा करते और आय भी प्रदान करते। इसमें शायद यह सोचा गया होगा कि अवैध कब्जाधारी दोबारा उन पेड़ों पर कब्जा न कर लें, किन्तु यह तो तभी संभव है जब सरकारी अमला सोया हुआ होगा। और यदि सरकारी अमले को सोना ही होगा तो कहीं दूसरी जगह ऐसा ही घट रहा होगा और विभाग सोये होंगे। वैसे तो कब्जा होने के समय भी तो संबंधित विभाग या तो सोये होंगे या अवैध कब्जाधारियों के सिर पर शासकों का वरदहस्त रहा होगा। क्या विभाग अन्य जगह जगे हैं, यह भी विचारणीय है।
हालांकि 2005 की दिसंबर 13 से पहले के कब्जे पर यदि वन अधिकार कानून 2006 के तहत दावा किया गया हो तो कब्जा धारी का कब्जा बना रह सकता है, यदि वन अधिकार समिति में दावे पुष्ट हुए हों और उनको जिला स्तरीय समिति द्वारा पारित किया गया हो। अन्यथा अवैध कब्जे को हटाया जाना ही उचित है। किन्तु कब्जे तो कई तरह के हैं। अवैध ढांचागत विकास के लिए जगह-जगह कंक्रीट निर्माण भी देखने को मिल जाएंगे जिनका पर्यावरण संरक्षण में कोई योगदान नहीं। सेब के पेड़ तो इस मामले में नकारात्मक भूमिका नहीं निभा रहे थे। इसलिए उनको बिना काटे ही सरकारी संपत्ति घोषित किया जाना चाहिए था। इसे अवैध कब्जा करने वालों को हतोत्साहित करने के साथ पेड़ को जिंदा रहने का अवसर भी मिलता। वनों के स्वरूप पर बहस हो सकती है कि उनमें कैसे पेड़ होने चाहिए और कैसे नहीं।



यदि प्राकृतिक रूप से किसी परिस्थिति तंत्र में जंगली पेड़ों की बात करें तो उसमें तो वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर चलाई गई सुधार वानिकी के नाम पर पहले ही स्थानीय प्रजातियों को व्यापारिक प्रजातियों के एकल वनों को फैलाने के लिए बड़े पैमाने पर नष्ट किया जा चुका है। इसलिए कुछ सेब के पेड़ यदि वन की शोभा बढाते तो उससे वन संपदा द्वारा दी जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं में कोई कमी नहीं आती। अब उन कटे हुए पेड़ों के स्थान पर नए पेड़ पनपने में कम से कम दो दशक का समय तो लगेगा, वह भी तब जब नए लगाए पेड़ों को बचाने की समुचित व्यवस्था होगी, वरना पेड़ लगते तो हैं पर उतने जिंदा नहीं बचते। आज के समय में जब बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बन गई है और प्रदेश में केवल 10 फीसदी ही जमीन खेती योग्य है, तो केवल कृषि भूमि से लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाना संभव नहीं। ऐसे में वन व्यवस्था में प्रजाति चयन से भी रोजगार खड़ा किया जा सकता है। हमें ऐसे वन तैयार करने होंगे जो बिना काटे ही आजीविका प्रदान कर सकें।
इसके लिए यदि फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाले वृक्षों, झाडिय़ों और घासों को वनों में उगाया जाए तो समाज को सामूहिक रूप से आजीविका के साधन दिए जा सकते हैं और वनों पर अवैध कब्जा करने की प्रवृत्ति को भी रोका जा सकेगा। जब तक सामूहिक हित को वनों के साथ नहीं जोड़ा जाता तब तक लोग मूकदर्शक बने रहते हैं और अवैध कारोबार पनपते रहते हैं। मीडिया रिपोर्टों से पता चला है कि जिन क्षेत्रों में अभी बाढ़ से तबाही हुई है, वहां जंगलों में कहीं कशमल की जड़ों को खोद कर ठेकेदारों द्वारा निजी भूमि के नाम पर धोखेदारी हुई है और कहीं पर मटर लगाने के लिए वनों में खरपतवार नाशक स्प्रे करके जमीन साफ करके मटर लगाए गए थे। इन बातों को रोकने के लिए स्थानीय जनता को सक्रिय करना पड़ेगा और सुदृढ़ सूचना तंत्र स्थापित करने की जरूरत है जिससे तत्काल वनों में हो रही गलत कार्रवाईयों का पता प्रशासन को लग सके और प्रशासन भी इतना चुस्त और राजनीतिक दखलअंदाजी से मुक्त होना चाहिए कि वह तत्काल कार्रवाई कर सके। कार्रवाई न करने पर उसे जवाबदेह ठहराने की व्यवस्था हो।


आखिर सेब के पेड़ों को फलने योग्य होने में कितना समय लगा होगा, तब तक कई वन विभाग के अफसर और कर्मचारी वहां सेवाएं दे चुके होंगे। जंगलों में मटर की खेती और कशमल उखडऩे की घटनाएं कैसे रुकेंगी? खेतों से कशमल उखाडऩे की इजाजत लेकर जंगल से कशमल उखाड़ी जाती है क्योंकि खेतों में कोई इतनी मात्रा में कशमल बचा कर नहीं रखता, जबकि वनों से कशमल उखाडऩे पर रोक है तो खेतों से कशमल उखाडऩे का परमिट देने से पहले यह क्यों नहीं देखा जाता कि क्या जहां के लिए परमिट दिया वहां इतनी कशमल निजी भूमियों में है भी या नहीं? चंबा के चुराह और सलूनी रेंज में भी इस वर्ष वन विभाग और जनता की जागरूकता के चलते कितना ही अवैध रूप से निकाला गया कशमल पकड़ा गया। इसके लिए विभाग और वहां की जनता को साधुवाद दिया जाना चाहिए, किन्तु यह जागरूकता स्थायी और सर्वव्यापी बने, इसके लिए हालात बनाने की व्यवस्था होनी चाहिए। तभी वन संपदा सुरक्षित रहेगी।

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