योजनाओं ने निगले जंगल

राजीव त्यागी 
देश में जंगलों के विनाश की कीमत पर विकास परियोजनाएं रफ्तार पकड़ रही हैं। वर्ष 2014 से 2024 के बीच देशभर में कुल 1.73 लाख हेक्टेयर वन भूमि को गैर-वानिकी उपयोग जैसे खनन, बुनियादी ढांचा और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए स्वीकृति दी गई है। यह क्षेत्रफल दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु तीनों महानगरों के संयुक्त आकार के बराबर है। 


यह जानकारी संसद में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत की गई। मंत्रालय के अनुसार यह स्वीकृति वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत दी गई, जिसके लिए केंद्र सरकार की अनुमति आवश्यक होती है। मंत्रालय द्वारा जारी अधिकृत आंकड़े दर्शाते हैं कि इस अवधि में कुल 14,000 से अधिक प्रस्तावों को वनभूमि उपयोग के लिए स्वीकृति दी गई, जिनमें सबसे अधिक भूमि खनन क्षेत्र से जुड़ी परियोजनाओं को मिली। इस संबंध में पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि औसतन हर साल लगभग 17,000 हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ा। 
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 से 2024 के बीच देशभर में सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में लगभग 28,000 हेक्टेयर वनभूमि खनन, बिजली संयंत्र और रेलवे विस्तार जैसे कार्यों के लिए दी गई। इससे बस्तर और सरगुजा में बड़े पैमाने पर जंगल कटे। इसके बाद ओडिशा में 25,000 हेक्टेयर, मध्य प्रदेश में 22,000 हेक्टेयर वनभूमि नहरों, सड़कों और खनन परियोजनाओं के लिए दी गई। झारखंड में 18,000 हेक्टेयर, महाराष्ट्र में 15,000 हेक्टेयर वनभूमि हाईवे, मेट्रो रेल और औद्योगिक पार्क जैसी परियोजनाओं के लिए स्वीकृत हुई। 



इन अनुमोदनों में सबसे अधिक भूमि खनन गतिविधियों के लिए आवंटित की गई जिसमें कोयला, लोहा, बॉक्साइट और अन्य खनिजों की खुदाई प्रमुख है। इसके बाद हाईवे, रेलवे, डैम, थर्मल पावर प्रोजेक्ट और इंडस्ट्रियल कॉरिडोर जैसी परियोजनाएं आती हैं। वन और पर्यावरण विशेषज्ञ कहते हैं कि पिछले दो वर्षों में कोयला खनन परियोजनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई है, जो सरकार की ऊर्जा नीति के अनुरूप है लेकिन पारिस्थितिक दृष्टि से यह पूरी तरह असंतुलित है।

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