बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण से बेचैन हुआ विपक्ष
- डॉ. आशीष वशिष्ठ
बिहार में मतदाता सूची के "विशेष गहन पुनरीक्षण" (स्पे̮शल इन्टेन्सिव रिवीजन —एस.आई.आर.) का काम शुरू हो गया है। चुनाव आयोग के मुताबिक उसकी इस पहल का मकसद मतदाता सूची को शुद्ध और वास्तविक बनाना है। हालांकि, विपक्षी दलों ने मतदाता सूची में छेड़छाड़ के व्यापक आरोप लगाए हैं। लगभग सभी ने एसआईआर का विरोध किया है और कहा है कि इससे मताधिकार से वंचित होने का गंभीर खतरा है। बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर 7.89 करोड़ से अधिक मतदाता हैं। राज्य में इसी साल अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं।
बिहार में इस तरह का आखिरी गहन संशोधन 2003 में किया गया था। चुनाव आयोग ने कहा कि बिहार में 2003 की मतदाता सूची को फिर से वेबसाइट पर अपलोड किया जाएगा, जिसमें 4.96 करोड़ लोगों के नाम हैं। इनमें शामिल लोगों को जन्मतिथि या जन्मस्थान साबित करने के लिए दस्तावेज नहीं देने होंगे। बाकी 3 करोड़ मतदाताओं को प्रमाण के लिए दस्तावेज देने होंगे। वोटिंग लिस्ट में ये संशोधन ऐसे वक्त किए जाने हैं जब बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में विपक्षी पार्टियां इस पर नाराज़गी जता रही हैं। इस मसले पर विपक्ष की ओर से एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस की गई थी, जिसमें बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने कई मुद्दे उठाए थे और व्यावहारिक समस्याएं बताई थीं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस कदम को एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) से भी ज्यादा खतरनाक बताया और आरोप लगाया कि उनका राज्य, जहां अगले साल चुनाव होने हैं, असली लक्ष्य है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 7 जून को महाराष्ट्र की मैच फिक्सिंग के बारे में कई बातें लिखी थीं। उन्होंने लिखा था, “…क्योंकि महाराष्ट्र की यह मैच फिक्सिंग अब बिहार में भी दोहराई जाएगी और फिर वहां भी, जहां-जहां बीजेपी हार रही होगी।”
तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरेक ओ ब्रायन ने 28 जून को कहा कि चुनाव आयोग द्वारा घोषित मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण “पिछले दरवाजे से एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) लाने का एक भयावह कदम” है। इससे पहले ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने इसको लेकर सवाल उठाए। उन्होंने 27 जून को एक्स पर पोस्ट करते हुए लिखा, "निर्वाचन आयोग बिहार में गुप्त तरीके से एनआरसी लागू कर रहा है।" जबकि सत्तारूढ़ दलों ने इसे पूर्व की चुनावी धांधली पर चुनाव आयोग की सख्ती के साथ पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने की दिशा में एक बड़ा कदम बताया है।
महागठबंधन के प्रमुख घटक दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि 2003 में जब मतदाता सूची का पुनरीक्षण हुआ था तो उसमें दो साल लगे थे और तब साढ़े चार करोड़ से कुछ ज्यादा मतदाता थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का मानना है कि विधानसभा चुनाव से एक महीने पहले सघन पुनरीक्षण अभियान संभव नहीं है। राजद नेताओं ने सवाल उठाया कि अगर मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की इतनी आवश्यकता है, तो यह केवल बिहार में ही क्यों किया जा रहा है? क्या देश के अन्य राज्यों को इसकी जरूरत नहीं है? नेताओं ने आरोप लगाया कि यह पूरी प्रक्रिया बिहार को निशाना बनाने की एक सोची-समझी रणनीति है।
संविधान का अनुच्छेद 324 (1) भारत के निर्वाचन आयोग को संसद और राज्य विधानसभाओं के- चुनावों के लिए मतदाता सूची तैयार करने और उनके संचालन के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की शक्ति देता है। गहन पुनरीक्षण में मतदाता सूची को नए सिरे से तैयार किया जाता है। भारत निर्वाचन आयोग बिहार के बाद, चुनाव आयोग इस वर्ष के अंत तक 2026 में चुनाव होने वाले पांच राज्यों में मतदाता सूचियों की इसी प्रकार की समीक्षा करेगा। असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की विधानसभाओं का कार्यकाल अगले वर्ष मई-जून में समाप्त हो रहा है। ध्यान रहे पश्चिम बंगाल और असम दोनों ही राज्यों में एनआरसी बड़ा मुद्दा है क्योंकि इन राज्यों में बांग्लादेशी घुसपैठियों और शरणार्थियों की बड़ी संख्या है।
राजनीतिक हलकों में इस बात की जोरों से चर्चा है कि बिहार के बाद मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की बारी पश्चिम बंगाल की होगी। तभी पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस बहुत बेचैन है। तृणमूल कांग्रेस को यह चिंता सता रही है कि अगर चुनाव आयोग ने चुनिंदा विधानसभा क्षेत्रों में टारगेट करके मतदाताओं के नाम काटे तो उसका फाय़दा भाजपा को होगा। पश्चिम बंगाल में 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जिसके बारे में भाजपा आरोप लगाती है कि इनमें बड़ी संख्या बांग्लादेशी और रोहिंग्या की है। इनका वोट एकमुश्त तृणमूल को जाता है। हर क्षेत्र में 10 से 20 हजार नाम अगर कट जाते हैं तो तृणमूल को उसका बड़ा नुकसान होगा। हालांकि बिहार से उलट पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के नेता ज्यादा जागरूक और सक्रिय हैं। वे आसानी से नाम नहीं कटने देंगे। पिछले कई महीनों से वे खुद घर घर जाकर सब चेक कर रहे हैं।
बिहार की राजनीति को करीब से जानने वालों के अनुसार, निर्वाचन आयोग देश में अवैध रूप से बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार से आकर जो लोग रह रहे हैं, जिन्होंने मतदाता सूची में नाम दर्ज करवा लिया है। वैसे लोगों को मतदाता सूची से हटाने की प्रक्रिया शुरू की है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जो भी अवैध रूप से बिहार आकर बस गए हैं, उनका वोट विपक्ष को जाता है। यही कारण है कि इंडिया गठबंधन के घटक दल हो या ओवैसी, इनको इस बात का डर सता रहा है कि मतदाता सूची से यदि इनका नाम कट गया तो उनका राजनीतिक रूप से नुकसान होगा।
बिहार के सीमांचल के इलाके में बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला वर्षों से सामने आ रहा है। पिछले 30 वर्षों में पूरे सीमांचल का समीकरण बदल गया है। किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया में अल्पसंख्यकों की आबादी 40 फीसदी से 70 फीसदी तक हो चुकी है। यही कारण है कि वर्षों से इस इलाके में बांग्लादेशी घुसपैठियों की रोक की मांग उठती रही है। कई इलाकों से हिंदुओं के पलायन की भी खबर उठी थी। केंद्र सरकार ने जब पूरे देश में एनआरसी लागू करने की बात कही थी तो बिहार में इस इलाके से भी विरोध के सुर उठे थे।
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद का वोट शेयर बढ़ा था। राजद को 23.11 फीसदी वोट मिले। भाजपा को 19.46 प्रतिशत ही वोट मिले, जदयू के खाते में 15.42 प्रतिशत वोट आया। 2024 लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा और जेडीयू ने 12-12 सीटें जीती। आरजेडी ने 4 सीटें, कांग्रेस ने 3 सीटें और एलजेपी (आर) ने 5 सीटें जीती हैं। सीपीआई (एमएल) ने 2 सीटें जीती हैं, जबकि एचएएम और एक स्वतंत्र उम्मीदवार ने 1-1 सीट जीती है।
जाति आधारित सर्वेक्षण आंकड़ों के अनुसार बिहार में करीब 17.70 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। वहीं, बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटर अहम भूमिका अदा करते हैं। इन इलाकों में मुस्लिम आबादी 20 से 40 प्रतिशत या इससे भी अधिक है। बिहार की 11 सीटें हैं, 10 से 30 फीसदी के बीच मुस्लिम मतदाता हैं। जानकारों का मानना है कि चुनिंदा क्षेत्रों में अगर एक निश्चित मात्रा में नाम कट जाएं तो मुकाबला कमजोर हो जाएगा। इसको समझने के बावजूद विपक्षी पार्टियां सड़क पर नहीं उतर रही हैं। हो सकता है कि इससे मुकाबले के लिए वे न्यायपालिका का रुख करें।
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