शिक्षित होते देश में बाधा बनती भाषा
- विवेकानंद विमल
कहते हैं अगर मनुष्य शिक्षित हो जाए तो समाज में वैमनस्यता कम होती है। शिक्षित लोगों के बीच मतभेद तो हो सकता है पर मनभेद नहीं होना चाहिए अन्यथा शिक्षा का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। शिक्षा और अशिक्षा के बीच जो मूल भेद है, वह यही है कि अशिक्षा समाज में विभाजन पैदा करती है, जबकि शिक्षा समाज को भावनात्मक, व्यावहारिक एवं बौद्धिक स्तर पर जोड़ती है। शिक्षा वास्तव में मनुष्य के भीतर मनुष्यता को जागृत करने का एक माध्यम है। देखा जाए तो हमारा देश शिक्षा के पथ पर गतिशील व अग्रसर तो हो रहा है, किंतु हम शिक्षा के उस मूल उद्देश्य को प्राप्त करने में अभी भी असफल है। हमने पिछली सदियों में देखा है कि इसी शिक्षा की कमी के कारण हम कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर लड़ते रहे या एक-दूसरे का शोषण करते रहे।
लेकिन कमाल की बात है अब भाषा भी इसी श्रेणी में आ गई है। भाषा भी अब इस देश को तोड़ने का कारण बनती जा रही है। यदि तनिक गहराई से विचार किया जाए तो हम पाएंगे कि बिना भाषा के तो शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भाषा ही शिक्षा के संप्रेषण व आदान - प्रदान का माध्यम है। ऐसे में अगर भाषाओं के बीच भी खाई खोद दी जायेगी तो शिक्षा किस हद तक मानव मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ पाएगी। आज जिस प्रकार भारत में प्रांतगत भाषाओं को लेकर जुनून पैदा हो रहा है, वह डरावना है।कभी महाराष्ट्र,कभी बंगाल तो कभी दक्षिण भारत के राज्यों में हिंदी भाषियों या अन्य प्रदेशों के लोगों के ऊपर स्थानीय भाषा को थोपने की जो कोशिश की जा रही है, वह निंदनीय तो है ही पर आश्चर्यजनक भी है। हम विविधता में एकता की बात तो करते है लेकिन जब उसे धरातल पर उतारने की बात आती है तो मुंह मोड़ लेते हैं।
इस बार भाषा के बढ़ते विवाद पर भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है। एक सामान्य शिक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता है कि कोई भी भाषा अकेली जीवित नहीं रह सकती। उसपर आसपास बोली जाने वाली भाषाओं का प्रभाव पड़ता ही है। ऊपर से भारत की लगभग सभी भाषाओं की जननी तो संस्कृत ही है। ऐसे में किस बात का बैर ? सोचने वाली बात यह भी है कि जो लोग प्रांतीय भाषाओं के संरक्षण के नाम पर हिंदी जैसी भाषा का विरोध करते है, वे ही लोग अंग्रेजी को आसानी से स्वीकार लेते है, जो कि एक विदेशी भाषा है। इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि अंग्रेजी विश्व भर में बोली जाती है और उसकी स्वीकार्यता हर जगह है। ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है कि अगर अंग्रेजी से बैर नहीं, तो हिंदी से इतनी नफरत क्यों ? अंग्रेजी अगर विश्व की प्रमुख भाषा है, तो हिंदी भी इस देश की प्रमुख भाषा है, ऐसे में देश भर में इसकी इज्जत क्यों नहीं हो सकती ?
सवाल यह भी उठता है कि क्या अब विविधता से भरे इस देश में कहीं जाने के लिए पहले आदमी को वहां की भाषा सिखनी पड़ेगी ? भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं। हर व्यक्ति को अधिक से अधिक भाषाएं आनी चाहिए। लेकिन समझने वाली बात यह है कि अगर हम भाषा के नाम पर ऐसे प्रतिबंध लगा देंगे तो इसका असर उन आम गरीब लोगों पर अधिक पड़ेगा जो पेट पालने को कभी कोलकाता, मुंबई तो कभी बेंगलुरु या चेन्नई दौड़ते रहते हैं। जरा सोचिए, जिस देश की पूरी आबादी अभी पूर्ण रूप से साक्षर नहीं है या जिसे अपनी मातृभाषा का ही सटीक ज्ञान नहीं है, वह रोज नई-नई भाषाएं कहां से सीख पाएगी! यह सब देखकर ऐसा लगता है मानो शिक्षित होते इस देश में भाषा ही अब बाधा बनती जा रही है। बेहतर तो यही होगा कि हम सभी भाषाओं का सम्मान करें। अपनी मातृभाषा के प्रचार प्रसार के लिए कोशिश करना हमारी जिम्मेदारी है, किंतु इसके लिए अन्य भाषा का अपमान करना हमारी अल्पज्ञाता को दर्शाता है।
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