भीड़ से इतना लगाव क्यों है भारतीयों को ?
- विवेकानंद विमल
यह कहा जाता है कि भीड़ का कोई धर्म नहीं होता किंतु यदि तनिक गहराई से चिंतन किया जाए तो हम समझ सकेंगे कि भीड़ का धर्म और केंद्र 'भावना' है। खास कर भारत जैसे देश में जो कि एक भाव प्रधान देश है और जहाँ लोग अक्सर भावनाओं में बह कर ही सारे कार्य करते है। जब भावना बलवती होती है तो हम त्याग के उच्च शिखर पर पहुँच कर इन्हीं भावनाओं के कारण जान लेने और जान देने को भी तैयार हो जाते हैं। हमारे भीतर इसी भावना के कारण त्याग की प्रवृत्ति भी कूट-कूट कर भरी है, क्योंकि हमने बचपन से ही कहानियों कविताओं, किवदंतियां और अपने बड़ों से यही सीखा है कि त्याग सबसे बड़ी शक्ति है और त्याग करने वाला ही सबसे महान है। इसी त्याग की प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए हम दान करते हैं, सेवा करते हैं और मंदिरों में बलि तक देते हैं। यह भावना से जन्मा त्याग जब आगे बढ़ता है तो स्वयं को कष्ट देने तक पहुँच जाता है। हम स्वयं को कष्ट देकर भी दूसरों को सुख देना चाहते हैं या उसके सुख में शामिल होना चाहते हैं। इसी त्याग की भावना का परिणाम था कि हमारे साधु-संतों ने स्वयं की सुविधाओं का त्याग कर भी जग कल्याण के लिए वर्षों-वर्षों स्वयं को कष्ट देकर तप किया और देशभक्तों ने अपनी जान की बाजी लगाकर भी लड़ाई लड़ी।
एक आम भारतीय जिसे तप और देशभक्ति जैसे उच्चतम आदर्श वाले त्याग का अवसर नहीं मिलता, वह भी त्याग के लिए अपनी भावनाओं के अनुरूप रास्ते तलाश लेता है। लोग स्वयं को कष्ट देकर तीर्थ पर जाते हैं। इष्ट के दर्शन के लिए नंगे पैर पहाड़ों की चढ़ाई करते हैं, ताकि उनके भीतर भी त्याग का बीज प्रस्फुटित हो सके। लेकिन यह भी सत्य है कि यह भावना से उत्प्रेरित त्याग कब प्राणों के लिए संकट बन जाए, कहा नहीं जा सकता। बेंगलुरु में आईपीएल फाइनल के बाद हुआ हादसा इसी का एक उदाहरण है।
क्रिकेट हमारे देश में धर्म है और यह धर्म इसलिए है क्योंकि यह भीड़ को प्रिय है। यह खेल भीड़ की भावना को झकझोरता है, उन्हें हँसने या रोने को विवश कर देता है। इस देश में खिलाड़ी केवल किसी खेल को खेलने वाला व्यक्ति नहीं बल्कि एक आम नागरिक की उम्मीदों के बोझ को ढोने वाला जरिया है। यही कारण था कि विराट कोहली, जिनका इतना बड़ा फैनबेस है, उनका पिछले अठारह सीजन से एक आईपीएल टाइटल न जीत पाना केवल उनका दुख नहीं था, बल्कि उन सारे क्रिकेट प्रेमियों का भी था जो कोहली के उस सपने को अपना सपना बना चुके थे। इसलिए जब आरसीबी ने ट्रॉफी जीती तो यह जीत उन प्रशंसकों की भी जीत थी जो सालों से स्टेडियम में, सड़कों पर, बसों में, ऑफिस में, घरों में, टीवी के सामने अपनी टीम और अपने खिलाड़ी का समर्थन करते रहे, हर सीजन के खत्म होने के बाद और दूसरे सीजन के शुरू होने से पहले सोशल साइट्स पर लिखते रहे हैश टैग "ई साला कप नम दे"।
ऐसे में जब इतने लंबे समय बाद सपना पूरा हुआ तो अपनी खुशी का इजहार करना एक स्वाभाविक-सी बात है और इसमें यदि दो-चार खरोचें आ जाएं तो क्या दिक्कत है। निश्चित ही लोगों ने जान देने की बात तो नहीं सोची होगी, लेकिन इस जीत के लिए अपने रोजमर्रा की जिंदगी के आराम को त्याग कर भीड़ व रोड शो का हिस्सा तो वे बन ही सकते थे। अगर भक्त भगवान के लिए नंगे पैर पहाड़ पर चढ़ सकता है तो एक प्रशंसक, अपने प्रिय खिलाड़ी की एक झलक पाने के लिए भीड़ में थोड़ा कष्ट सह ले या अपने सुखों का त्याग कर दे तो क्या दिक्कत है ? आखिर दोनों में ही मनुष्य भावना के ही वशीभूत होकर ही तो रहता है। तभी इस देश में क्रिकेटरों को भी हमने भगवान तक की उपाधि दे दी। किंतु सच यह भी है कि कोई भीड़ कब किसी की अपनी हुई है। उसे न किसी के जीत से फर्क पड़ता है, न हार से। जो सामने आ जाए उसे कुचल कर आगे बढ़ना, यही भीड़ का स्वभाव है।
भावना और भीड़ का यह खूनी खेल नया नहीं है, न ही भारतीयों का भीड़ से लगाव नया है। सैकड़ों लोग हर साल अलग-अलग जन सैलाबों में भीड़ का शिकार बन जाते हैं। हाल ही में गुजरे कुंभ में भी तो यही हुआ था। यहाँ जैसे लोग अठारह साल के बाद आए जीत के जश्न में सबकुछ लुटा लेने को तैयार थे, वैसे ही वहाँ 144 साल बाद आए कुंभ में सारे कष्ट सहते हुए, अपने सुखों को त्याग कर भी बस एक डुबकी लगा लेने को लोग व्याकुल थे। परिणाम दोनों में ही एक हुआ, लोग मरे, अपनों ने अपनों को खोया और एक खुशियों से भरा जनसैलाब, मातम के जमघट में तब्दील हो गया। लेकिन अंत में प्रश्न यही उठता है कि यह सह कब तक चलता रहेगा। हम व्यक्तिगत रूप से कब जागरूक हो पाएंगे और समझ पाएंगे कि भीड़ या समाज का एक हिस्सा जो कर रहा है, वही हमें भी करना चाहिए यह आवश्यक नहीं। हम क्यों हर भीड़ में कूद पड़ने को आतुर रहते है ? हम हर चीज के लिए सरकार या प्रशासन को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। हमारा जीवन हमारी जिम्मेदारी भी है, जिसकी रक्षा और सुरक्षा के प्रति सचेत रहना हमारा ही प्रथम कर्तव्य है।
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