आसमान में रोटी, थाली में चाँद कार्टून

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
बात उस समय की नहीं, आज के समय की है- जब स्कूटी का पेट्रोल महंगा और बेरोजगार का आत्मसम्मान सस्ता हो चुका है। मैं भी उन्हीं में से था, जो शिक्षा विभाग की वेबसाइट पर "रिक्त पद नहीं हैं" पढ़कर दिल थाम लेते हैं और "कृपया पुनः प्रयास करें" को जीवन-मंत्र मानकर जीते हैं। किसी ने कहा, "हैदराबाद जा कर अधिकारियों से मिलो।" गया भी, मुस्कुराकर बोला, "सर, नौकरी चाहिए।" उन्होंने पलटकर ऐसा देखा जैसे मैंने उनकी बेटी का हाथ माँग लिया हो। बोले- "डिग्री तो ठीक है, पर अनुभव नहीं है!" मैं कहना चाहता था- "सर! भूखा पेट भी अनुभव ही है, और पेट के नीचे जब आँतें बजती हैं, तो वह घंटी बहुत अनुभवी होती है।"
बाहर आया, जेब में एक रुपया था, पर PayTM की बैलेंस Insufficient। वो रुपया भी जाने कहाँ गया, लगता है मोदीजी के डिजिटल इंडिया में नोट भी खुद को log out कर लेते हैं। स्टेशन की बेंच पर बैठा, पेट खाली और पेटीएम भी। मन कर रहा था, IRCTC ऐप में "Bhookh Tatkal" बुक कर लूँ। तभी पास एक किसान परिवार बैठा—"Desi vibes" में टोकरे से खरबूजे निकाल रहा था। मैंने आँखें ऐसी घुमाईं जैसे IRCTC वेटिंग टिकट हो—उम्मीद कम, इंतज़ार ज़्यादा। किसान ने नजरें मिलाई और कहा—"लो भैया, शक्कर जैसे हैं!" मैं बोला—"भैया, अब तक शक्कर सिर्फ़ घोटालों में देखी थी, आज फल में दिख रही है।" दो फाँकें मिलीं, खाई ऐसे जैसे Netflix पर सीरीज बिंज कर रहा हूँ।

जबलपुर में सरकारी स्कूल में नौकरी लगी, पर किराया नहीं था। TikTok बंद हो गया, लेकिन मैं टिकट के बिना ही ट्रेन में चढ़ गया। साथ में दरी, किताबें और आत्मसम्मान बाँध रखा था। एक खानसामा मिला—बड़ा दिलदार। बोला—"सीट के नीचे से निकल जाना, जाँचने वाला भी आजकल WhatsApp में व्यस्त रहता है!" उस दिन लगा जैसे आज भी इंसानियत ज़िंदा है, बस Data Pack ऑन होना चाहिए।

पहली सैलरी आई तो दिल किया Insta story डाल दूँ—"First Salary Vibes", लेकिन उसी दिन पिताजी की मौत की खबर मिली। बैंक में आए पैसे सीधे श्मशान पहुँचे। माँ के कंगन बेचकर श्राद्ध किया। रिश्तेदारों ने पूछा—"बेटा! सैलरी का क्या किया?" मैंने कहा—"बाबा को मोक्ष का PF दिलाया।" ज़िन्दगी में पहली बार समझ आया—ATM में पैसा होना और पेट में खाना होना, दो अलग बातें हैं।

बहन की शादी का समय आया, और जेब में सिर्फ आशिर्वाद। स्टेशन पर जेब कट गयी, मोबाइल गया, आधार कार्ड गया, बची तो वो बहन की उम्मीद। अगला स्टेशन आया, मैंने कुल्हड़ वाली चाय और पूड़ी-सब्जी खाई, और बुदबुदाया—"रोटी कपड़ा मोबाइल गया, फिर भी मूड ठीक है।" एक पुजारी मिला, बोला—"चलो, बिजली की चमक से रास्ता ढूँढेंगे।" हम गाँव पहुँचे जैसे कोई फीमेल-फ्रेंड के घर पहली बार मिलने गया हो—डरे भी, थके भी, लेकिन ज़िंदा थे। शादी हो गई, जैसे UPSC क्लियर हो गया हो—संघर्ष से, तुक्के से नहीं।

व्यंग्य लिखना शुरू किया—तब नहीं जब लाइक मिलने लगे, बल्कि तब जब आँसू भी सूख गए। जब देखा कि हर गली में कोई दुखी है, पर हँसने का ढोंग किए बैठा है, तब सोचा—"मैं उनके लिए लिखूँगा जो रो नहीं सकते, क्योंकि डरते हैं कि कहीं Memes में न बदल जाएँ!"
लेखन तब शौक नहीं रहा, वो हथियार बन गया। मैं अकेले नहीं लड़ सकता था, पर शब्दों को मार्शल आर्ट सिखा दिया।

राजनीति में घुसने की सोची- सोचा राज्यसभा में जाऊँगा, और वहाँ जाकर शिक्षा सुधार पर भाषण दूँगा। लेकिन वहां तो “चिट-पत्र” की लाइन थी, जैसे नौकरी के लिए कोचिंग सेंटर की लाइन। हर चिट के साथ लगता- “कोई मेरा रिज्यूमे पढ़ेगा भी या सीधे फोल्डर में जाएगा?” एक महीने लाइन में बैठा रहा। दरबान बोला- "बिना सिफारिश यहाँ गेट नहीं खुलता।" तब समझ में आया- यहाँ संविधान नहीं, नेटवर्क चलता है।

अभी जो लिख रहा हूँ, उसमें जितनी उथल-पुथल भीतर है, बाहर उतना कुछ दिख नहीं रहा। शब्द गूंगे हो गये हैं, जैसे बहरों के सामने भाषण दे रहा हूँ। लिखता हूँ हँसाने के लिए, लेकिन हर लाइन लिखने से पहले आँसू छिपाने का काम ज़्यादा होता है। व्यंग्य अब मज़ाक नहीं, दर्द का PDF बन गया है।

आज सोचता हूँ—हर गर्दिश को थोड़ा “इंस्टाग्रामेबल” बना दूँ। थोड़ी फिल्टर वाली मुस्कान, थोड़ा कंटेंट-क्रिएटर वाला एंगल और थोड़ा #StrugglerLife का हैशटैग लगाकर लोगों को परोस दूँ। कह दूँ—"ले भाई, देख मेरी गर्दिश। Like, Share, Subscribe कर दे, तेरी मर्जी!"

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