विकास को मुंह चिढ़ा रही डायन जैसी कुप्रथाएं


- योगेंद्र योगी
बिहार में मुजफ्फरपुर के मोतीपुर में 70 वर्षीय बुजुर्ग महिला को डायन होने के आरोप में गांव वालों ने घसीटा, पीटा और मैला पिलाने की कोशिश की। यह घटना अंधविश्वास और डायन प्रथा की वजह से हुई, जो बच्चों की बीमारी का दोष महिला पर मढऩे के लिए की गई। देश के राज्यों में ऐसी घटनाएं निजी दुश्मनी या संपत्ति हड़पने के लिए आम हैं। मानवता को कलंकित करने वाली ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कानून बना है, किन्तु ऐसे कानूनों का भी वही हाल है, जैसा निर्भया बलात्कार कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों का हुआ है। निर्भया मामले के बाद फांसी तक प्रावधान किया गया, इसके बावजूद देश में ऐसी घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। इससे जाहिर है कि सिर्फ कानून के बूते महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों को नहीं रोका जा सकता।
मुजफ्फरपुर की यह वारदात डायन प्रथा की कोई इकलौती घटना नहीं है। झारखंड, बिहार, असम, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में आज भी डायन के नाम पर महिलाओं को प्रताडि़त किया जाता है। परिवार की संपत्ति हड़पने की साजिश में, कभी निजी दुश्मनी में, तो कभी महज बीमारी और अनहोनी के लिए एक बलि का बकरा खोजने के बहाने के रूप में महिलाओं को निशाना बनाया जाता है। क्रूरता के कलंक की यह कथा भारत में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड और ओडिशा सहित कई राज्यों में कानूनी प्रावधानों को ठेंगा दिखाते हुए बेखौफ जारी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2022 के आंकड़े इस अमानवीय सच्चाई की केवल एक झलक दिखाते हैं।

इन आंकड़ों के मुताबिक, 2022 में डायन प्रथा के नाम पर देशभर में 85 हत्याएं दर्ज हुईं। लेकिन जो दर्द पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पाता, उसकी संख्या कहीं अधिक है। कई पीडि़त महिलाएं तो कभी पुलिस स्टेशन तक पहुंच ही नहीं पातीं। डर, समाज का दबाव और अक्सर पुलिस की अनदेखी, इस काली गिनती को अधूरा छोड़ देती है। एनसीआरबी के 2014 में आंकड़े के मुताबिक झारखंड में 2012 से 2014 के बीच 127 महिलाओं की हत्या डायन बताकर कर दी गई। राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री एचपी चौधरी ने ये आंकड़े बताए थे। वर्ष 2022 में ऐसे अपराधों में कमी आई है, लेकिन इसे पूरी तरह से खत्म होने में शायद अभी भी दशकों लग जाएं। यह समस्या सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (2021) की रिपोर्ट बताती है कि 2009 से 2019 के बीच विश्व के 60 देशों में करीब 20000 ऐसी घटनाएं सामने आईं, जहां लोगों को डायन बताकर प्रताडि़त किया गया। एक नई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ओडिशा के 30 जिलों में से 12 जिलों, विशेषकर मयूरभंज, क्योंझर, सुंदरगढ़, मलकानगिरी, गजपति और गंजम, में डायन-शिकार अभी भी अत्यधिक प्रचलित है। इस तरह की अंधविश्वासी प्रथाओं के ज्यादातर शिकार स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं या फसल खराब होने के कारण होते थे। अध्ययन के अनुसार लगभग 27 प्रतिशत मामले बच्चों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण, 43.5 प्रतिशत वयस्क परिवार के सदस्य की स्वास्थ्य समस्याओं के कारण, 24.5 प्रतिशत दुर्भाग्य या जमीन हड़पने के कारण और 5 प्रतिशत फसल खराब होने के कारण होते हैं।
इस खौफनाक कुप्रथा की सबसे बड़ी शिकार महिलाएं बनती हैं। खासकर वे जो विधवा हैं, अकेली हैं या मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों से जूझ रही हैं। समाज के बीमार हिस्से ने इन्हें हर अनहोनी का कारण मान लिया है। अगर किसी घर में कोई बीमार पड़ जाए, फसल खराब हो जाए या गांव में कोई अनजानी विपत्ति आ जाए, तो इन बेबस महिलाओं को ही दोषी ठहराया जाता है। अंधकार के बीच उम्मीद की किरण भी दिखाई देती है। असम की बीरूबाला राभा ने इसी प्रथा के खिलाफ अकेले मोर्चा खोला था। उन्होंने अपना पूरा जीवन डायन प्रथा के खिलाफ संघर्ष में झोंक दिया। उनकी मेहनत रंग लाई और असम में इसके खिलाफ कानून बना।



असम सरकार का दावा है कि इस कानून के प्रावधान दूसरे राज्यों के ऐसे कानूनों के मुकाबले कठोर हैं। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि महज कानून बना कर सदियों पुरानी इस कुप्रथा को खत्म करना संभव नहीं है। इसके लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक जागरूकता जरूरी है। दिल्ली स्थित ‘पार्टनर्सस फार ला इन डेवलपमेंट’ नामक एक संगठन ने अपने शोध में कहा कि डायन प्रथा की जड़ें पितृसत्तात्मक मानसिकता, आर्थिक झगड़ों, अंधविश्वास और दूसरी निजी और सामाजिक संघर्ष में छिपी हैं। ज्यादातर मामले पुलिस के पास ही नहीं पहुंचते। ऐसे में सरकारी आंकड़े इस भयावह समस्या की सही तस्वीर नहीं दिखाते। देश में डायन प्रथा कब से शुरू हुई, इसका कोई प्रामाणिक इतिहास तो नहीं मिलता लेकिन यह सदियों पुरानी है। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में डाकन या डायन प्रथा कोई छह-सात सौ साल पहले से चलन में थी। इसके तहत अपनी जादुई ताकतों के कथित इस्तेमाल से शिशुओं को मारने के आरोप में महिलाओं की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती थी। उस दौर में वहां हजारों औरतें इस कुप्रथा का शिकार हुई थीं।
राजपूत रियासतों ने 16वीं सदी में कानून बना कर इस प्रथा पर रोक लगा दी थी। वर्ष 1553 में उदयपुर में पहली बार इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया था। बावजूद इसके यह बेरोक-टोक जारी रही। यह प्रथा असम के मोरीगांव जिले में फली-फूली। इस जिले को अब काले जादू की भारतीय राजधानी कहा जाता है। दूरदराज से लोग काला जादू सीखने यहां आते हैं। नेशनल क्राइम रिकाड्र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2000 से 2016 के बीच देश के विभिन्न राज्यों में डायन करार देकर 2500 से ज्यादा लोगों को मार दिया गया। उनमें ज्यादातर महिलाएं थीं। इस मामले में झारखंड का नाम सबसे ऊपर है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में वर्ष 2001 से 2014 के बीच डायन होने के आरोप में 464 महिलाओं की हत्या कर दी गई।



उनमें से ज्यादातर आदिवासी तबके की थीं। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं का दावा है कि एनसीआरबी के आंकड़े तस्वीर का असली रूप सामने नहीं लाते। डायन के नाम पर होने वाली हत्याओं की तादाद इससे कई गुनी ज्यादा है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में डायन के खिलाफ लोगों की एकजुटता की वजह से ज्यादातर मामले पुलिस तक नहीं पहुंच पाते। डायन प्रथा हो या निर्भयाकांड, सरकारें कानून बना कर अपनी जिम्मेदारी को पूरा मान लेती हैं, जमीनी धरातल पर हकीकत में तस्वीर बदले या न बदले। आईटी सेक्टर, चिकित्सा, विज्ञान एवं तकनीक, प्रबंधन क्षेत्र, रॉकेट साइंस सहित विभिन्न क्षेत्रों में भारत ने विश्व में अपना लोहा मनवाया है। विश्व की प्रमुख कंपनियों में से ज्यादातर के सीईओ भारतीय हैं। इसके बावजूद भारत में डायन जैसी कुप्रथा के मौजूद होने को यही माना जा सकता है कि असंतुलित विकास ऐसी कुरीतियों के लिए जिम्मेदार है। देश के विभिन्न राज्यों में डायन प्रथा के खिलाफ कानून होने के बावजूद अब तक इस सामाजिक कुरीति पर अंकुश नहीं लग सका है। गरीबी और विकास की बुनियादी सुविधाओं से वंचित इलाकों में ऐसी घटनाओं से जाहिर है कि असमानता चाहे जिस भी स्तर पर हो, जब तक उसका खात्मा नहीं होगा तब तक विकास की तमाम सफलताओं के बावजूद महिलाएं अत्याचार की चक्की में पिसती रहेंगी।

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