"मौन की मुस्कान"- चुप्पियों के शब्दों में गूंजती स्त्री की आत्मा

मौन की मुस्कान (हिंदी काव्य संग्रह)
लेखिका: प्रियंका सौरभ
प्रकाशक: आर.के. फीचर्स, प्रज्ञांनशाला, भिवानी।
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"मौन की मुस्कान" केवल कविताओं का संग्रह नहीं, एक स्त्री की आत्मा से निकली आवाज़ है। प्रियंका सौरभ की रचनाएँ जीवन, प्रेम, संघर्ष, और सामाजिक अन्याय को गहरे संवेदनात्मक और वैचारिक धरातल पर उठाती हैं। हर कविता मौन को भाषा और चुप्पी को प्रतिरोध में बदलती है। चाहे वह सरकारी स्कूलों की आवाज़ हो या शहीद की राखी, हर पंक्ति आत्मा को छूती है। यह संग्रह उन सभी के लिए है जो शब्दों के पार जीवन को पढ़ना जानते हैं।

"मौन की मुस्कान" कोई साधारण कविता-संग्रह नहीं है। यह एक स्त्री की उन असंख्य चुप्पियों का दस्तावेज़ है, जिनसे न तो इतिहास वाकिफ़ है और न ही वर्तमान अक्सर जानना चाहता है। प्रियंका सौरभ की कविताएँ जीवन की उन परतों को खोलती हैं, जहाँ शब्द नहीं, संवेदनाएँ बोलती हैं; और जब वे बोलती हैं, तो पूरा समाज सुनाई देता है।
"सन्नाटे की साँझ में" कविता में प्रियंका लिखती हैं:
"प्रेम कोई नाटकीय प्रदर्शन नहीं,
वह दो स्वभावों की ऐसी सांगीतिक रचना है
जहाँ एक मौन रहता है
तो दूसरा गाता है।"
यह पंक्ति नारी के मौन और उसके आत्मीय संवाद की गहराई को छू जाती है। कवयित्री ने मौन और संवाद को रिश्तों की नींव के रूप में प्रस्तुत किया है- नारी का मौन कोई कमजोरी नहीं, बल्कि गहराई है।
इसी तरह, "सत्य का गीत चाहिए" में वे सत्ता, विवेक और नैतिक अकेलेपन की बात करती हैं:
"जिसके पक्ष में
न नारे हों, न नगाड़े,
उसी की आवाज़
कभी न कभी
संविधान बनती है।"
यह कविता किसी आंदोलन की घोषणा है, जो भीड़ से नहीं, अकेले खड़े एक सत्यनिष्ठ से शुरू होती है। यह संग्रह केवल भावुक नहीं बनाता, बल्कि न्याय, संघर्ष और आत्मगौरव की चेतना भी जाग्रत करता है।
प्रियंका की भाषा में कोई बनावटी क्रांति नहीं है- यह सामान्य स्त्रियों के असामान्य जीवन का अनकहा इतिहास है। "उम्मीदों के चाँद तारे", "जब नकाब उतरते हैं", और "मत समझो तुम..." जैसी कविताएँ आत्मनिरीक्षण और आत्मगौरव की नई परिभाषाएँ गढ़ती हैं। विशेषकर “जब नकाब उतरते हैं” में वह बेबाकी है, जो आज की स्त्री के आत्मसम्मान का सबसे सटीक परिचय है।
"आओ सरकारी स्कूल चलें" कविता में प्रियंका समाज के उस वर्ग की बात करती हैं, जो शिक्षा की लड़ाई सरकारी स्कूलों में लड़ रहा है- यह कविता सिर्फ़ एक भाव नहीं, शिक्षा-नीति पर गहन टिप्पणी भी है।
"बेड़ियों में बंधा सपना" जैसी रचना तो एक मुकम्मल भाषाई संघर्ष का घोषणापत्र है — जहाँ प्रियंका ने देश की बहुभाषिक असमानता पर सीधा प्रहार किया है:
"क्या यह सच है? क्या यही इन्साफ है?
क्या भाषा की जंजीरें, हौंसलों की बात है?"
यह एक ऐसी कविता है जो भाषाई वर्चस्व को चुनौती देती है और भारत की हर क्षेत्रीय भाषा में सपने देखने वालों की आवाज़ बनती है।
प्रियंका सौरभ की कविताएँ कोई 'साहित्यिक सजावट' नहीं, बल्कि स्त्री की आत्मा से निकले जीवन के सत्य हैं। वे जिस साहस से, सहजता से और संवेदना से लिखती हैं, वह उन्हें आज की हिंदी कविता में एक विशिष्ट स्थान देता है।
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समीक्षक- डॉ. पूर्णिमा, अमृतसर

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