बुकर की रोशनी में नहाया 'हॉर्ट लैंम्प'


- प्रभुनाथ शुक्ल
साहित्य सिर्फ कोरी कल्पना या फंतासी नहीं। साहित्य जीवन का यथार्थ है और हर स्वांस में रचा बसा है। कन्नड़ लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता, अधिवक्ता बानू मुश्ताक की अंग्रेजी में अनुदित कृति हॉर्ट लैंम्प को बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया है। यह भारत की भाषायी साहित्य के लिए यह बेहद गर्व और गौरव का विषय है। इससे यह साबित होता है कि लेखन किसी धर्म, भाषा, जाति और सीमा में बधा नहीं है। आम तौर पर सर्वहारा वर्ग की पीड़ा एक जैसी होती हैं, उनकी जाति या धर्म कुछ भी हो। यह पुरस्कार भारतीय भाषाओं के लिए एक संजीवनी है।
बुकर पुरस्कार भाषा के नाम पर लड़ने वाले एक सभ्य समाज के लिए साफ संदेश है। अगर भाषा का विभेद होता तो दीपा भस्थी की तरफ से कन्नड़ से अनुदित बानू मुश्ताक की सिर्फ बारह लघुकथाओं के संकलन हॉर्ट लैम्प को बुकर पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया जाता। भाषा और साहित्य सीमा से बहुत दूर है। अब तक यह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार छह भारतीय लेखकों को मिल चुका है। इसके लिए बानू मुश्ताक के साथ दीपा भी बधाई की पात्र हैं। क्योंकि यह उनकी पहली अनुदित कृति है जिसे यह सम्मान मिला है।

बानू मुश्ताक दक्षिण भारतीय लेखिका हैं। बानू मूलरुप से कन्नड़ भाषा में अपना लेखन करती हैं। बानू को जो बुकर पुरस्कार मिला है वह कन्नड़ में लिखी उनकी लघुकथा संग्रह से चुनी कुछ लघुकथाओं के अंग्रेजी अनुवाद पर दिया गया है। उन्होंने कुल छह लघुकथा संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध और एक कविता संग्रह लिखा है। उनकी रचनाओं का अनुवाद हिंदी, तमिल, मलयालम और उर्दू में किया गया है। उन्हें इसके अलावा और भी साहित्य पुरस्कार मिले हैं। साहित्य में सबसे अहम सवाल है कि आप कितना लिख रहे हैं यह मायने नहीं रखता है। वजूद इस बात का है कि आप क्या लिख रहे हैं। लिखा तो बहुत कुछ जा रहा है या बहुत कुछ लिखा गया है, लेकिन सबको बुकर नहीं मिला। बुकर को ध्यान में रखकर लिखना भी संभव नहीं है। क्योंकि साहित्य कोई तकनीक नहीं एक जीवंत कला है जो बगैर जीवन के जीवंत नहीं होती। बानू लंकेश पत्रिका से भी जुड़ी थीं और बेंगलुरु आल इण्डिया रेडियो में भी काम किया।



बानू मुश्ताक (77) की स्कूली शिक्षा की शुरुआत भी कठिन चुनौतियों से हुईं यही उनके लेखकीय जीवन की चुनौती बनी। उनका जन्म 1948 में कर्नाटक के मुस्लिम परिवार में हुआ था। शिवमोगा के कन्नड़ मिशनरी स्कूल में पिता के काफी प्रयास के बाद उनका दाखिला भी आठ साल की उम्र में इस शर्त पर हुआ था कि उन्हें छह माह में कन्नौड़ को लिखना पढ़ना आना चाहिए,  नहीं तो स्कूल छोड़ना पड़ेगा। क्योंकि बानू एक मुस्लिम परिवार से रहीं जहाँ स्कूल की शर्त उनके लिए एक चुनौती थीं, लेकिन उन्होंने कर दिखाया। मुश्ताक ने 1980 में मुस्लिम समाज में कट्टरता को कम करने के लिए काम किया। उन्होंने मस्जिदों में भी मुस्लिम महिलाओं के प्रवेश की वकालत किया जिसकी वजह से उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार भी हुआ। उन्हें जान से मारने की धमकियां भी मिली। हलांकि उन्होंने स्कूलों में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने का समर्थन किया था, जिसका विवाद कर्नाटक के शिक्षा संस्थानों में आज भी मुद्दा है।
बानू मुश्ताक ने मुस्लिम समाज में औरतों और दूसरी समस्याओं को बड़ी गहराई से परखा। ऐसी समस्याओं ने उन्हें प्रभावित किया जिसे उन्होंने कहानी या लघुकथा का आधारा बनाया। लिखने का शौक उन्हें बचपन से था, उनकी पहली कहानी 26 साल की उम्र में प्रजामाता में प्रकाशित हुईं इसके बाद लेखन की दुनिया में उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। जिस हॉर्ट लैम्प के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है उसमें 1990 से 2023 तक की लघुकथाएं हैं जिनमें मुस्लिम समाज की महिलाओं का संघर्ष दिखाया गया है। अनुवादक दीपा भस्थी भी पहली भारतीय हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है।
मुश्ताक कहानियों का अनुवाद साल 2022 में पहली बार दीपा भस्थी ने अंग्रेजी में किया। जिसमें उन्होंने हॉर्ट लैंप नाम से कन्नड़ से कुछ चुनी हुईं कहानियों का अंग्रेजी में अनुवाद किया जिन्हें बुकर पुरस्कार 2025 से सम्मानित किया गया है। इस पुरस्कार में 50 हजार पाउंड की राशि लेखक को मिलती है। जिसमें आधी राशि अंग्रेजी अनुवादक के हिस्से में जाती है। क्योंकि बुकर पुरस्कार सिर्फ अंग्रेजी कृति या उस भाषा में अनुदित संग्रह को ही मिलता है। इसका मकसद साफ है कि अच्छा साहित्य सभी तक पहुंचना चाहिए। क्योंकि कि साहित्य की कोई सीमा नहीं होती है। भारतीय रुपए में इस पुरस्कार की कीमत 52.95 लाख होती है। मुश्ताक पहली कन्नड़ लेखिका हैं जिन्हें बुकर पुरस्कार 2025 के लिए चुना गया। यह अनुवादक दीपा भस्थी के लिए भी गर्व का विषय है।
बुकर पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के अध्यक्ष मैक्स पोर्टर कहानियों की सराहना किया। उन्होंने कहा है कि हलांकि मुश्ताक की कहानियां स्त्रीवादी विचारधारा की पोषक हैं। पितृसतात्मक व्यवस्था का मुखर विरोध और प्रतिरोध है। लेकिन सबसे अहम बात है कि इसमें स्त्री के दैनिक जीवन के संघर्ष को बेहद उम्दा तरीके से प्रदर्शित किया गया है। यह अपने आपमें सबसे अलग है।
अब तक छह पूर्व भारतीय लेखकों को उनकी कृति के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिल चुका है। जिसमें वीएस नायपॉल, सलमान राश्दी, अरूँधती राय, किरण देशाई, अरविंद अडिगा और गीतांजली श्री को हिंदी उपन्यास के लिए 2022 में यह पुरस्कार मिला था।  जबकि सबसे पहले 1971 में नायपॉल को मिला मिला था। बुकर की होड़ में पांच किताबें शामिल थीं जिसमें सोलेज की ऑन द कलकुलेशन ऑफ़ वैल्यूज, स्मॉल बोट की विसेंट डेलिक्रोइस्क, हीरोमी कावाकामी की अंडर द आई ऑफ द बिग बर्ड, डिसेंजो लैट्रिनिको की परफेक्शन और ऐरी सेरे की ए लैपर्ड स्किन हैट शामिल थीं। ऐसी स्थित में कन्नड़ से अंग्रेजी में अनुदित हॉर्ट लैम्प को बुकर मिलना गर्व की बात है।



बुकर पुरस्कार की स्थापना 1969 में इंग्लैंड की मैकोनल कम्पनी ने की थीं। इस पुरस्कार का पूरा नाम मैन बुकर प्राइज फ़ॉर फिक्शन है। इसमें लेखक और अनुवादक को निर्धारित 50 हजार पाउंड की राशि में आधा-आधा हिस्सा मिलता है। इस पुरस्कार का उदेश्य अच्छे साहित्य का विकास है। जिसकी अवधारणा है कि कोई भी अच्छा साहित्य की कोई सीमा नहीं होती, बस उसके लिए मंच और माध्यम आवश्यक है। इसमें न लेखक की भाषा मायने रखती है न लेखक की जाति और धर्म। बस ! आप भी लिखते हैं तो कुछ अच्छा लिखिए, भले छोटा लिखिए या कम लिखिए।
(लेखक एवं समीक्षक, भदोही)

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