एक लंबा अरसा


एक लम्बा सा  अरसा बीत चला था
अपनों से कभी मैं जुदा  हो चला था
कभी यारों की, महफ़िल  जमती थी
वह हम सभी  से तो दूर हो चला था।

वह  संग-संग  रहके  घूमना-फिरना
वह  मौज-मस्ती  में  पढ़ना-लिखना
कभी चौक-चौपाटी  में  रंग  जमाना
ऐसे  यारों से मैं  तो दूर  हो चला था।

अकेले में भी बहुत खूब याद करना
मन को झूठी  तसल्ली  दिया करना
और  उदासी में  भी खुब  मुस्कुराना
क्योंकि मैं तो मुसाफिर  हो चला था।

कारवां बढ़ता गया मैं चलता ही रहा
यारों से मिलने की  आस करता रहा
अचानक एक मीठा सा आहट आया
जहाँ मैं अपनों से जुदा हो चला था।

आज मैं जी भर के, बात  करता रहा
हाले दिल की  खुशी बयां करता रहा
गले लग-लग के यारों से मिलता रहा
क्योंकि मिलने का वक्त आ चला था।
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- अशोक पटेल "आशु"
तुस्मा, शिवरीनारायण (छग)।

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