इंसान की मूल प्रकृति और उसके सामाजिक निहितार्थ
डॉ. पिंकी
प्रत्येक इंसान की अपनी मूल प्रकृति होती है, अपना व्यवहार होता है, जिसके अनुरूप उसके विचार तैयार होते हैं। व्यक्ति के विचार, व्यवहार या आदत कोई ऐसी चीज नहीं है कि अचानक या अनायास उत्पन्न हो जाए। हां, इन मूल तत्वों में समय, अनुभव या परिस्थितिवश कुछ हद तक बदलाव लाया जा सकता है। परंतु अगर हम सोचें कि यह बदलाव सत प्रतिशत हो जाए, तो यह असंभव है।
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अगर प्रत्येक इंसान अपनी प्रकृति का है, वह स्वतंत्र है, तब दूसरे इंसान के साथ सामंजस्य कैसे हो? संबंधों को गति कैसे मिले? समाज की गतिशीलता कैसे बनी रहे? अगर सब अपने आप में स्वतंत्र प्रकृति के हैं, तो व्यक्तिगत व सामाजिक जुड़ाव, संबंध, समाज की दिशा-दशा, उसका चरित्र, गतिशीलता, प्रगति को कैसे सकारात्मक, कल्याणकारी और सतत बनाया जाए?
उक्त बिंदुओं का गहराई से परीक्षण करने पर समाधान तक पहुंचा जा सकता है। पहला, यह ठीक है कि प्रत्येक इंसान अपनी प्रकृति का है, स्वतंत्र है, यूनिक है, अलग है, परंतु यह ध्यान रहे कि प्रत्येक व्यक्ति इस समाज का हिस्सा है। दूसरे व्यक्ति की इंपॉर्टेंस वही है, जो स्वयं की है।
दूसरा, एक इंसान का कभी कोई समाज नहीं हो सकता। असहमति को स्वीकार करने की क्षमता विकसित करनी होगी। किसी व्यक्ति के विचार से सहमत न होने की स्थिति में भी असहमति के साथ उसका और उसके विचारों का सम्मान करना। "शांतिपूर्ण सहअस्तित्व" को आत्मसात करना होगा, जो कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, विदेश नीति और संविधान का मूल तत्व भी है।
समाज में भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग हैं, भिन्न-भिन्न विचार हैं। इस प्रकार, हमें प्रत्येक स्तर पर विविधता देखने को मिलती है। इस विविधता की स्वीकारोक्ति प्रत्येक इंसान में होनी चाहिए। विविधता की स्वीकारोक्ति एवं शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के साथ संतुलन स्थापित करके ही स्वयं का और समाज के विकास की प्रगति का वाहक बना जा सकता है।
यह ध्यान रहे कि अवरोध की सर्वकालिक एक सच्चाई है। समय के साथ अवरोधों को प्रगति पथ से हटना ही होता है, यही अवरोधकों की नियति है।
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि शब्द हो, विचार हो, आदत हो या व्यवहार हो — आत्यंतिक कुछ भी ठीक नहीं होता। आत्यंतिक होने पर वह नकारात्मक होता है और अंततः पतनकारी सिद्ध होता है — व्यक्ति के स्वयं के लिए भी और समाज के लिए भी।
उपर्युक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए यदि एक इंसान दूसरे इंसान व समाज के साथ सामंजस्य व संतुलन बनाने का प्रयास करता है या बनाता है, तो निश्चित ही व्यक्ति व समाज की चहुँमुखी प्रगति सर्वहितकारी और कल्याणकारी होगी।उपर्युक्त बिंदुओं की स्वीकारोक्ति के साथ निश्चित ही इंसान की मूल प्रकृति अनुकरणीय और सुंदर है।
असिस्टेंट प्रोफेसर
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