यौन अपराध पर गंभीर मंथन जरूरी
इलमा अज़ीम
हाल के दिनों में भारत में यौन अपराधों की बाढ़-सी आई हुई है। महिलाओं के साथ घृणित यौन अपराधों की तमाम घटनाएं प्रकाश में आ रही हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस नैतिक पराभव का कारण क्या है। कहीं न कहीं ये जीवन मूल्यों में क्षरण का भी परिचायक है। दरअसल, इंटरनेट और कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अश्लील सामग्री की बाढ़-सी आई हुई है। देश का युवा उसकी चपेट में आकर भटकाव की राह में बढ़ रहा है। सामाजिक स्तर पर संयुक्त परिवारों के बिखराव से भी यह संकट और बढ़ा है।
गांव व शहर में पहले सामाजिक संरचना मनुष्य को संयमित व मर्यादित जीवन जीने को बाध्य करती थी। हमारी शिक्षा व्यवस्था से नैतिक शिक्षा की कमी भी अखरती है। दरअसल, सोशल मीडिया पर ऐसे कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो पश्चिमी जीवन शैली की तर्ज पर स्वच्छंद यौन व्यवहार को प्रोत्साहित करते हैं। जिसे युवा सामान्य जीवन में स्वच्छंदता का पर्याय मानने लगा है। कहीं न कहीं महानगरीय संस्कृति में नई पीढ़ी पर परिवार संस्था की ढीली होती पकड़ भी इन अपराधों के मूल में है। समाज विज्ञानियों को आत्ममंथन करना होगा कि यौन अपराधों को लेकर सख्त कानून बनने के बावजूद इस आपराधिक प्रवृत्ति पर अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा है।
इस दिशा में सरकार, समाज व परिवार को गंभीरता से मंथन करना होगा। अन्यथा भारत यौन अपराधों की राजधानी बनने में देर नहीं लगेगी। महिलाओं के प्रति हिंसा के आंकड़े इस विषय में एक कटु वास्तविकता को बयान करते हैं: क़रीब 33 फ़ीसदी महिलाओं व लड़कियों को जीवन में शारीरिक और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है और विश्व भर में पचास फ़ीसदी से ज़्यादा महिलाओं की हत्या उनके संगी-साथी या परिजन करते हैं। महिलाओं व लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा के मूल में सदियों से चला आ रहा पुरुषों का दबदबा है।
कलंक, ग़लत धारणाएं, मामलों के पूरी तरह सामने ना आने और क़ानूनों को सही ढंग से लागू ना किए जाने के कारण बलात्कार के दोषियों को सज़ा का डर नहीं होता और वे साफ बच निकलते हैं। इस सब को अब बदलना होगा।
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