(व्यंग्य आलेख)
गड़े मुर्दे उखाड़ने से बहुत कुछ होता है
- कृष्ण कुमार निर्माण
लोकतंत्र में सबको आजादी है। इसलिए कोई कुछ भी करे, कुछ भी कहे, कैसे भी रहे, कुछ खाए, कुछ पीए, जिसकी मर्जी पूजा-अर्चना करे और जहाँ उसका मन करे, वहाँ करें क्योंकि याद रखो भाई यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र सबको आजादी का प्रमाणपत्र देता है? अतः गड़े मुर्दे भी उखाड़े जा सकते हैं और हम तो कहते हैं कि गड़े मुर्दे उखाड़ने ही चाहिए क्योंकि देखो बोलने वालों का तो अपना अंदाज है?कह देंगे कि अरे भाई!गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा होगा?कुछ नहीं मिलता ऐसे काम करने से?पर ऐसा कहने वाले जरा अपने गिरेबान में झाँके क्योंकि गड़े मुर्दे उखाड़ने से बहुत कुछ मिलता है।
सबसे पहले तो यही मिलता है कि गड़े मुर्दे उखाड़े गए यानि कि.. जब गड़ा मुर्दा उखाड़ा गया,तो वह मिला कि नहीं?और यह तो ऐसा काम है जो कइयों को मुफीद होता है,कइयों को काम दिलाता है।अब देखो ना!पहला काम तो बैठे ठाले उसी को मिला जिसने गड़े मुर्दे उखाड़े क्योंकि बेचारा बिना काम के बेरोजगार बैठा था,सो उसे काम मिला और ऐसे तमाम लोगों की बेरोजगारी बिना किसी पर्ची-खर्ची के दूर हो गई और जिसने भी गड़े मुर्दे उखाड़े,उसे बैठे ठाले प्रसिद्धि मिली,सो अलग।अब आगे देखिए जनाब!जैसे ही गड़े मुर्दे उखड़े/उखाड़े गए,तैसे ही तमाम भोंपू वालों को काम मिल गया,जिनको कोई विषय नहीं सूझ रहा था,उन्हें न केवल विषय सुझा बल्कि दिव्य दृष्टि मिली कि अरे!इस पर तो अच्छी-खासी बहस हो सकती है और लगे बहस-पर-बहस करने-करवाने,टीआरपी उछलने लगी और साथ ही भोंपू बजाने वाले उछलने लगे कि देखो!ये क्या हो रहा है देश में?क्या हम अपना अगला-पिछला न जानें? क्यों ना जाने?
क्या हमें लोकतंत्र में आजादी नहीं है आदि-आदि।और साहब!गड़े मुर्दे उखाड़ने से बेरोजगारी मिटती है।अब देखो ना!जैसे ही गड़े मुर्दे उखड़े कि पुलिस को काम मिल गया वरना बैठे-बैठे थुलथुल हुए जा रहे थे और आनन-फानन में जहाँ-जहाँ गड़े मुर्दे उखाड़े गए,वहाँ-वहाँ उनकी तैनाती कर दी और वह भी शिफ्टों के हिसाब से ताकि जितना गड़ा मुर्दा उखाड़ लिया गया है,वह तो उखाड़ ही लिया गया है,बस बाकी ना उखाड़ा जाए क्योंकि गड़ा मुर्दा आखिर जितना उखाड़ा जाएगा,उतना ही .....वो सब कुछ होगा,जो गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला चाहता है।खैर,जिनको प्रदर्शन करके खुद को आगे लाने का शौक है,उन्हें काम मिल गया और लगे नारेबाजी करने और साहब छा गए अखबारों में...बेचारा गड़ा मुर्दा यह सोचकर हैरान कि अरे भाई लोगों,मुझे उखाड़ तो लिया,याब और कितना उखाड़ोगे लेकिन जिन्हें लोकतंत्र की आजादी को मनाने का शौक चढ़ा हो,वो लोग कहाँ मानने वाले होते हैं?लगे हुए हैं गड़े मुर्दे उखाड़ने और ऐसे-ऐसे लोग लगे हैं गड़े मुर्दे उखाड़ने, जो छठी कक्षा में ही पाँच बार फेल होकर स्कूल को टाटा-बाय बोल चुके हैं।गड़े मुर्दे उखाड़ने से इतिहासकारों को मुँह खोलने का मौका मिला,वरना बेचारों को कौन पूछता था?एक कोने में पड़े थे,गड़े मुर्दों की तरह।
और तो और अपनी संसद में बैठने माननीयों को काम मिल गया क्योंकि मूल विषयों पर कोई विचार-विमर्श करना इनके बस का खेल नहीं लेकिन गड़े मुर्दों पर विचार-विमर्श करना इनके बाएं हाथ का खेल है और जब भी संसद के पटल पर गड़े मुर्दे उखाड़ने का विषय आया,तब-तब जमकर बहस हुई और काम तो उन लोगों को भी मिला जो तोड़-फोड़ के जबरदस्त शौकीन हैं,जिन्हें एक दो गाड़ी जलाने के बाद ही नींद आती है,सो जैसे ही गड़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं,तैसे ही ऐसे लोगों की बाँछे खिल जाती हैं और सक्रिय हो जाते हैं।अतः यह कहना कि गड़े मर्दे उखाड़ने से क्या होता है?तो जनाब यह नितांत तथ्यहीन बात है जबकि सत्य तो यह है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से बहुत कुछ होता है। इसलिए जब भी समय मिले या ना मिले मगर गड़े मुर्दे उखाड़ते रहिए। आखिर लोकतंत्र में आजादी है साहब।
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