मर्ज का फर्ज
विशाल आबादी पर चिकित्सकों की उपलब्धता वैश्विक मानकों के अनुरूप नहीं
इलमा अज़ीम
सर्वविदित है कि देश की विशाल आबादी पर चिकित्सकों की उपलब्धता वैश्विक मानकों के अनुरूप नहीं है। यूनेस्को कई बार बता चुका है कि भारत के कई स्थानों पर एक हजार व्यक्तियों पर एक चिकित्सक भी उपलब्ध नहीं है। ऐसे में यदि देश के कई मेडिकल कॉलेजों के चिकित्सा पाठ्यक्रमों में सीटें खाली रह जाएं तो इसे देश के लिये विडंबना ही कहा जाएगा।
इस ज्वलंत मुद्दे पर देश की शीर्ष अदालत ने संज्ञान लेते हुए निर्देश दिए कि इस माह के अंत तक देश के सभी मेडिकल कालेजों के चिकित्सा पाठ्यक्रमों में रिक्त पड़ी सीटों को तुरंत भरा जाए। जाहिर है जब देश में पहले से ही डॉक्टरों के कमी है तो ये सीटें क्यों खराब की जा रही हैं? निश्चित रूप से समाज के अंतिम व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में शीर्ष अदालत की यह पहल बदलावकारी साबित हो सकती है।
देश में चिकित्सकों की कमी को देखते हुए पिछले दिनों बड़ी संख्या में नये मेडिकल कालेज खोले गए हैं, लेकिन इनमें सीटों की संख्या दुगनी हो जाने के बाद भी डॉक्टरों की कमी बनी हुई है। वैसे निजी अस्पतालों में तो डॉक्टरों की कमी नहीं है, लेकिन सार्वजनिक अस्पतालों व डिस्पेंसरियों में डॉक्टरों की कमी बराबर बनी रहती है।
खासकर ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति बहुत खराब है। यही वजह है कि देश के बड़े चिकित्सा संस्थानों मसलन एम्स व पीजीआईएमईआर जैसे संस्थान मरीजों के दबाव से चरमरा रहे हैं। साथ ही चिकित्सक बेहद दबाव में काम कर रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल हमारे गांवों में चिकित्सा सुविधाओं के नितांत अभाव का होना है। ऐसा नहीं है कि इस चुनौतीपूर्ण स्थिति का सरकार को भान नहीं है।
सरकार भी मानती है कि देश के ग्रामीण इलाकों के अस्पतालों अथवा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की उपलब्धता तो दूर सामान्य डॉक्टरों की मौजूदगी भी कम ही है। इस संकट का समाधान तभी संभव है जब देश में अधिक मेडिकल कालेज खुलें और उनकी सभी सीटों को भरा जाए। वहीं दूसरी ओर डॉक्टरों को ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिये प्रेरित किया जाए। साथ ही नीति-नियंताओं के लिये यह आत्ममंथन का विषय है कि देश चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में नई खोजों व अनुसंधान में पीछे क्यों रह गया है।
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