प्लेसमेंट और आज के युवा
इलमा अज़ीम
युवाओं के लिए रोजगार के अवसर केवल एक देश की समस्या ना होकर अब वैश्विक समस्या होती जा रही है। रोजगार को लेकर अब तो यह भी बेमानी हो गया है कि आपने कहां से अध्ययन किया है। हालात यह होते जा रहे हैं कि दुनिया के श्रेष्ठतक अध्ययन केन्द्रों के पासआउट युवा भी अच्छे पैकेज के रोजगार के लिए दो चार हो रहे हैं। यह कल्पना या कपोल कल्पित नहीं बल्कि वास्तविकता है कि हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड, शिकागो, कोलंबिया, एमआईटी, पेन्सिलवेनिया, एमआईटी जैसे वैश्विक ख्यातनाम संस्थानों से एमबीए करें युवाओं को पासआउट के तीन माह बाद तक ऑफर नहीं मिलने की संख्या में तेजी से इजाफा होता जा रहा है।
चौकाने वाली बात यह है कि 2021 की तुलना में 2024 में यह प्रतिशत करीब करीब चार गुणा बढ़ गया है। 2021 में केवल 4 प्रतिशत पासआउट छात्र ही ऐसे थे जिन्हें पासआउट के तीन माह बाद तक ऑफर नहीं मिलता था वह संख्या 2024 तक बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है। अमेरिका के शीर्ष सात संस्थनों में कहीं कहीं तो छह गुणा तक की बढ़ोतरी देखी गई है। यह इसलिए भी चिंताजनक है कि जिन संस्थानों के अध्ययन का स्टेण्डर्ड निर्विवाद समूचे विश्व में श्रेष्ठतम रहा है और जिनकी वैश्विक पहचान है उनकी ही यह हालत है तो आम संस्थानों की क्या होगी? यह अकल्पनीय है।
सवाल केवल प्लेसमेंट तक ही सीमित नहीं हैं अपितु पैकेज में भी लगातार कमी देखी जा रही है। कुछ चंद युवाओं को अच्छा पैकेज मिल जाना इस बात का प्रमाण नहीं हो सकता कि कंपनियों द्वारा युवाओं को अच्छा पैकेज दिया जा रहा है। दरअसल कोरोना के बाद से प्लेसमेंट और पैकेज को लेकर हालात बहुत हद तक बदल गए हैं। यदि हम भारत की ही बात करें तो देश के शीर्ष प्रबध संस्थानों से पासआउट युवाओं को 2022 में औसत 29 लाख का पैकेज मिल रहा था तो वह 2024 आते आते 27 लाख पर आ गया है।
यह सब तो देश दुनिया के शीर्ष अध्ययन संस्थानों से पासआउट युवाओं को लेकर है। सामान्य व मध्यस्तरीय संस्थानों से पासआउट युवाओं को मिलने वाला पैकेज तो बहुत ही कम होता जा रहा है। दूसरी और घर बार छोड़कर 90 घंटे तक काम करने को लेकर बहस चल रही है। एक ओर पिकोक कल्चर, हाईब्रीड सिस्टम और वर्क फ्राम होम से कार्यस्थल पर युवाओं को लाने की जद्दोजहद जारी है तो दूसरी और कम होते अवसर चिंता का विषय बनते जा रहे हैं।
बहरहाल, सरकारें लाख प्रयास करें या विपक्षी बेरोजगारी बढ़ने के लाख आरोप प्रत्यारोप लगाये पर लगता है कि प्लेसमेंट, रोजगार और पैकेज का संकट किसी एक देश का नहीं अपितु वैश्विक समस्या बनती जा रही है। इससे युवाओं में कहीं ना कहीं निराशा भी आती जा रही है।
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