भोजपुरी भाषा: संवैधानिक मान्यता की लंबी प्रतीक्षा

- नृपेंद्र अभिषेक नृप
भाषा विचारों को व्यक्त करने का प्रमुख साधन है। यह न केवल संवाद का माध्यम है बल्कि किसी समाज या देश की सांस्कृतिक पहचान भी होती है। भाषा के माध्यम से ही लोग अपने मनोभावों, विचारों और संवेदनाओं को साझा करते हैं। भाषा का विकास समाज के साथ-साथ हुआ है, और यह सतत परिवर्तनशील रही है। भारत जैसे बहुभाषी देश में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं, जिनमें से कई को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। लेकिन कुछ भाषाएँ अभी भी इस मान्यता की प्रतीक्षा में हैं, जिनमें भोजपुरी भी एक प्रमुख भाषा है। दशकों से भोजपुरी को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की जा रही है, लेकिन अब तक यह माँग पूरी नहीं हो सकी है।

भोजपुरी भाषा की उत्पत्ति के संदर्भ में विद्वानों की विभिन्न राय रही है। भाषाविद् उदय नारायण तिवारी का मानना है कि भोजपुरी का उद्गम मागधी अपभ्रंश से हुआ है। उनके अनुसार, भोजपुरी, मैथिली और मगही तीनों सहोदर भाषाएँ हैं, जबकि बंगला, उड़िया और असमिया उनकी चचेरी बहनें हैं। वहीं, प्रसिद्ध भाषाविद् सुनीति कुमार चटर्जी का मत है कि भोजपुरी, मैथिली और मगही से अलग एक स्वतंत्र भाषा है, जिसे पश्चिमी मागधी भाषा समूह में रखा जाना चाहिए। भोजपुरी भाषा पर पश्चिमी भाषाओं, विशेषकर उर्दू का भी प्रभाव देखा जाता है। इसी कारण से मगही और मैथिली की तुलना में भोजपुरी एक अलग पहचान रखती है।



भोजपुरी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में बोली जाती है। अनुमानतः विश्वभर में लगभग 25 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। यह भाषा नेपाल, फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिडाड और टोबैगो सहित लगभग सोलह देशों में बोली जाती है। प्रवासी भारतीयों के कारण यह भाषा वैश्विक मंच पर अपनी विशेष पहचान बना चुकी है। भोजपुरी सिनेमा और लोकगीतों की लोकप्रियता भी इसकी व्यापकता को दर्शाती है।

भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग बहुत पुरानी है। 2013 में पटना के गाँधी मैदान में नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए भाषण में भी यह मुद्दा उठाया गया था। इसके बाद 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरा, मुजफ्फरपुर और छपरा की सभाओं में भी भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का वादा किया गया। लेकिन यह वादा आज तक अधूरा है। संवैधानिक मान्यता की माँग को लेकर कई संस्थाएँ और संगठन वर्षों से आंदोलन कर रहे हैं। 2015 से भोजपुरी जन जागरण अभियान के अध्यक्ष और साहित्यकार संतोष पटेल के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर-मंतर पर अब तक तेरह बार धरना प्रदर्शन किया जा चुका है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को भी कई ज्ञापन सौंपे गए हैं, लेकिन सरकार की ओर से अभी तक ठोस कदम नहीं उठाया गया है। इस उदासीनता के कारण भोजपुरी भाषी लोगों को निराशा ही हाथ लगी है। हजारों छात्र भोजपुरी विषय में एमए और पीएचडी कर चुके हैं, लेकिन संवैधानिक मान्यता के अभाव में उन्हें उचित रोजगार नहीं मिल पा रहा है।

युवा कवि और अभिनेता अभिषेक भोजपुरिया सरकार से सवाल करते हैं-"भोजपुरी से है कैसी दूरी, सरकार बोले क्या मजबूरी?" भोजपुरी फिल्म और संगीत उद्योग भी संवैधानिक मान्यता के अभाव में प्रभावित हो रहा है। भोजपुरी फिल्मों की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ रही है, लेकिन इसके बावजूद इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह पहचान नहीं मिल पा रही है, जिसकी यह हकदार है। प्रसिद्ध भोजपुरी गायक रामेश्वरम गोप का कहना है कि यदि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता मिल जाए, तो लोकगायकों और कलाकारों को भी अधिक अवसर प्राप्त होंगे। भोजपुरी गायक उदय नारायण सिंह भी इस मुद्दे को उठाते हुए कहते हैं कि यदि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता मिल जाए, तो यह फिल्मफेयर और राष्ट्रीय पुरस्कारों में अपनी अलग पहचान बना सकती है। इससे भोजपुरी भाषा के साहित्य, कला और संस्कृति को भी एक नई दिशा मिलेगी।

भोजपुरी को संविधान में स्थान दिलाने के लिए अनेक प्रयास किए जा चुके हैं। 'आखर' जैसी संस्थाएँ वर्षों से भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग कर रही हैं। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जन्मस्थल पंजवार में हर वर्ष विशेष कार्यक्रमों के माध्यम से भोजपुरी के संवैधानिक अधिकार की माँग की जाती है।अब जबकि भोजपुरी वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है, इसे संविधान से दूर रखना न्यायोचित नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह अपने वादों को पूरा करे और भोजपुरी भाषा को उसका उचित सम्मान दिलाए। यह न केवल भोजपुरी भाषी लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति होगी, बल्कि भारत की सांस्कृतिक समृद्धि को भी एक नई ऊँचाई मिलेगी।

भोजपुरी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग आज की नहीं, बल्कि बहुत पुरानी है। इस देश के कई संगठनों ने भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर राज्यों के जिला एवं प्रखंड स्तर तक धरना एवं बैठकें की हैं। परंतु, वे सभी संगठन इस लड़ाई को कोई निर्णायक मोड़ नहीं दे पाए। बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के भोजपुरी विभागाध्यक्ष डॉ. जयकांत सिंह जय का मानना है कि भोजपुरी भाषा, संस्कृति, क्षेत्र और जनता के विकास के निमित्त भोजपुरी आंदोलन 1940 ई. में जनपदीय आंदोलन के रूप में शुरू हुआ। इसके पीछे तीन तरह की विचारधाराएँ काम कर रही थीं। पहली धारा भोजपुरी भाषा, लोक-साहित्य, कला, संस्कृति के साथ-साथ इतिहास, भूगोल आदि को भोजपुरी के माध्यम से हिंदी और देश-दुनिया के समक्ष लाने की पक्षधर थी। इस धारा के प्रमुख नेता डॉ. बसुदेव शरण अग्रवाल थे। दूसरी धारा 'जनपदीय साहित्य मंडल' की स्थापना कर इन सामग्रियों को भोजपुरी-हिंदी भाषा में संग्रहित कर अध्ययन और अनुसंधान कराने की समर्थक थी। इस विचारधारा के संवाहक पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी थे।तीसरी धारा भोजपुरी से जुड़ी सभी समस्याओं के समाधान के लिए एक अलग भोजपुरी प्रांत बनाने पर ज़ोर दे रही थी, जिसके प्रबल और प्रखर पैरवीकार महापंडित राहुल सांकृत्यायन थे।

भोजपुरी भाषा हमेशा से राजनीति का शिकार रही है। चाहे वह कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, अब तक की सभी सरकारों ने भोजपुरिया जनता को केवल आश्वासन ही दिया है। पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने सदन में कहा था कि बहुत जल्द भोजपुरी को संविधान में शामिल किया जाएगा, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भोजपुरी फिल्म अभिनेता व दिल्ली से सांसद मनोज तिवारी, केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल और तत्कालीन गृहमंत्री एवं वर्तमान रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने भी 2018 में भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात कही थी। लेकिन आज तक किसी ने भी इस पर विधेयक लाने का प्रयास नहीं किया। हालाँकि, 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सदन के पहले सत्र में महाराजगंज सांसद जनार्दन सिंह सिग्रीवाल और पूर्व राज्यसभा सांसद आर. के. सिन्हा ने भोजपुरी के संवैधानिक दर्जे को लेकर सवाल उठाया। वहीं, गोरखपुर सांसद रवि किशन ने 2019 में एक निजी विधेयक भी प्रस्तुत किया, जिसका समर्थन छपरा सांसद राजीव प्रताप रूडी ने किया था। लेकिन दुर्भाग्यवश, यह सब केवल खानापूर्ति बनकर रह गया।

सरकारों ने कई बार इस संबंध में आश्वासन दिए, बहसें हुईं, लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। इस बीच, भोजपुरी भाषियों से कम जनसंख्या वाली नेपाली और मैथिली भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया, लेकिन भोजपुरी को अब तक इसका अधिकार नहीं मिल सका। कभी बोली-भाषा के भेद का पाठ पढ़ाकर, तो कभी नियमों की अस्पष्टता का हवाला देकर भोजपुरी भाषियों की मांग को दरकिनार कर दिया गया। बिहार सरकार ने मार्च 2017 में भोजपुरी को द्वितीय भाषा का दर्जा दिया और भारत से अलग मॉरीशस की पहल पर यूनेस्को ने भोजपुरी संस्कृति के 'गीत-गवनई' को सांस्कृतिक विरासत का दर्जा दिया। लेकिन केंद्र सरकारों ने इस दिशा में कभी कोई ठोस प्रयास नहीं किया।

विश्वभर में करीब आठ देश ऐसे हैं, जहाँ भोजपुरी धड़ल्ले से बोली और सुनी जाती है। नेपाल में नेपाली भाषा के बाद भोजपुरी दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। जून 2011 में मॉरीशस की संसद ने भोजपुरी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया, जहाँ के स्कूलों और मीडिया में भी इस भाषा का भरपूर उपयोग होता है। इसी तरह, फिजी में भी भोजपुरी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिसे वहाँ 'फिजियन हिंदी' या 'फिजियन हिंदुस्तानी' कहा जाता है।

यदि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो निश्चित रूप से इसके सुखद परिणाम होंगे। एक ओर, भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा मिलेगा, जिससे इससे जुड़ी कई संस्थाएँ अस्तित्व में आएँगी। दूसरी ओर, क्षेत्रीय भाषा के विकास के साथ-साथ कला, साहित्य और विज्ञान के अध्ययन को बढ़ावा मिलेगा। संवैधानिक दर्जा मिलने से विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों में भोजपुरी भाषा की पढ़ाई को बढ़ावा मिलेगा, जिससे रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।


अब प्रधानमंत्री द्वारा भोजपुरी में ट्वीट किए जाने के बाद बिहार के भोजपुरी भाषी लोगों में यह चर्चा फिर तेज हो गई है कि "चुनाव के समय ही सरकार को भोजपुरी, छठ और बिहार की अन्य लोककलाएँ क्यों याद आती हैं?" सवाल यह भी उठता है कि "क्या भोजपुरी केवल वोट बैंक की भाषा बनकर ही रह जाएगी?" यदि केंद्र सरकार को भोजपुरी सचमुच पसंद है, तो अब तक इसे आठवीं अनुसूची से दूर क्यों रखा गया है?

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