वीआईपी संस्कृति समाप्त हो
 
 राजीव त्यागी 
  मन्दिरों, धर्मस्थलों एवं धार्मिक आयोजनों में वीआईपी संस्कृति एवं उससे जुड़े हादसों एवं त्रासद स्थितियों ने न केवल देश के आम आदमी के मन को आहत किया है, बल्कि भारत के समानता के सिद्धांत की भी धज्जियां उड़ा दी है। महाकुंभ हो या मन्दिर, धार्मिक आयोजन हो या कीर्तन-प्रवचन भगदड़ के कारण जो दर्दनाक हादसे होते रहे हैं, जो असंख्य लोगों की मौत के साक्षी बने हैं, उसने वीआईपी कल्चर पर एक बार फिर से नये सिरे से बहस छेड़ दी है। 
सवाल उठ रहा है कि जब गुरुद्वारे में वीआईपी दर्शन नहीं, मस्जिद में वीआईपी नमाज नहीं, चर्च में वीआईपी प्रार्थना नहीं होती है तो सिर्फ हिन्दू मंदिरों में कुछ प्रमुख लोगों के लिए वीआईपी दर्शन क्यों जरूरी है? क्या इस पद्धति को खत्म नहीं किया जाना चाहिए, जो हिंदुओं में दूरिया का कारण बनता है? वीआईपी संस्कृति एक पथभ्रष्टता है। यह एक अतिक्रमण है। यह मानवाधिकारों का हनन है। समानता के नजरिए से देखा जाए तो समाज में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए, धार्मिक स्थलों में तो बिल्कुल भी नहीं। 




देश की कानून व्यवस्था एवं न्यायालय भी देश में बढ़ती वीआईपी संस्कृति को लेकर चिंतित है। मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने अपनी एक सुनवाई के दौरान कहा भी है कि लोग वीआईपी संस्कृति से ‘हताश’ हो गए हैं, खासतौर पर मंदिरों में। इसके साथ ही अदालत ने तमिलनाडु के प्रसिद्ध मंदिरों में विशेष दर्शन के संबंध में कई दिशा निर्देश जारी किए।



 एक आम आदमी जो घंटों लाइन में लगने के बाद मंदिर के अंदर प्रवेश करता है तो उसे बाहर से ही दर्शन करने के लिए बाध्य किया जाता है जैसे वह कोई अछूत हो और वहीं दूसरी ओर आपके सामने ही कुछ वीआईपी लोग बड़े आराम से मंदिर के गर्भगृह में दर्शन लाभ करते हुए नजर आते हैं। लगता है मंदिरों में दर्शन एवं धार्मिक आयोजनों में सहभागिता को लेकर आम आदमी गुलामी की मानसिकता को ही जी रहा है। जरूरत इस बात की है कि मन्दिरों एवं धार्मिक-स्थलों से वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने के लिए कोई ठोस कदम उठाया जाए।

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