गाँधी की दृष्टि में सतत विकास एवं पर्यावरणीय मूल्य

- डॉ. ओपी चौधरी
संधारणीय विकास प्राकृतिक संसाधन का एक मार्गदर्शक सिद्धान्त है,जिससे हमारी धरती और पर्यावरण की विविधता, प्राकृतिक उत्पादनशीलता, क्षमता और स्थायित्व बना रहे और मानव जीवन चिरकाल तक संकट मुक्त रह सके। महात्मा गांधी संधारणीय विकास के प्रवर्तक थे। उनका मानना था कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर ही हम अपना जीवन सुधार सकते हैं। गाँधीजी की दृष्टि में सभी प्राणी, वनस्पति आदि प्रकृति की कृति हैं और प्रकृति ही ईश्वर है। इसलिए ईश्वर की कृति और प्रकृति की संरचना के मध्य संतुलन बनाकर पर्यावरण का संरक्षण व संवर्द्धन किया जाना चाहिए।मनुष्य का प्रकृति के साथ अटूट संबंध है।
हमारे पूर्वजों ने कहा है कि 'यत पिंडे तत ब्रह्माण्डे' अर्थात जो इस पिंड या शरीर में है वही ब्रम्हांड(प्रकृति) में है। मनुष्य का क्रमिक विकास प्राकृतिक पर्यावरण से निरंतर क्रिया व प्रतिक्रिया के कारण हुआ है। शरीर और प्रकृति में सामंजस्य -पृथ्वी, जल,वायु, अग्नि व आकाश के पंच-महाभूतों से है। गाँधीजी का मानना था कि प्रकृति में मानव कल्याण की भावना निहित है। उसमें संगीत है, सौंदर्य है, वृक्ष हैं, लताएं हैं, चारों ओर हरियाली है।प्रकृति फूलों-फलों, फसलों, वनस्पतियों आदि से आच्छादित है।मानव और प्रकृति एक एक दूसरे पर निर्भर हैं। मानव समाज को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए प्राकृतिक सम्पदा प्राप्त करना आवश्यक है, लेकिन मनुष्य ने जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अपने स्वार्थ में किया उससे पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ गया।हमें गाँधीजी द्वारा बताए गए मार्ग पर-प्रकृति के साथ मित्रवत रहकर आगे कदम बढ़ाने होंगे।


महात्मा गाँधी के दर्शन का सारभूत तत्व है ईश्वर सत्य है और सत्य ही ईश्वर है।अखिल विश्व सजीव-निर्जीव पदार्थों का समुच्चय है। इसी से पर्यावरण का सृजन है।पर्यावरण एक सम्पूर्ण समष्टि है जो भौतिक, जैविक और सांस्कृतिक तत्वों की अंतःक्रिया से निर्मित है।पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986 के अनुसार, पर्यावरण के अंतर्गत किसी जीव को चारों ओर से घेरने वाली भौतिक एवम जैविक दशाएं तथा उनके साथ अंतः क्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं।
          पृथ्वी पर जीवन के लिए जरूरी तत्व भूमि, जल तथा वायु उपलब्ध है।पर्यावरण के तीनों महत्वपूर्ण घटक-भूमंडल,जलमंडल और वायुमंडल आपस में मिलते हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।जीवमंडल एक ऐसा सीमित क्षेत्र है जहां भूमि, जल और हवा एक साथ मिलते हैं।जिनमें आपस में अंतर्भूत संबंध है।प्रकृति में सामान्यतः इनके सभी तत्व एक संतुलित अनुपात में रहते हैं।ये तत्व एक-दूसरे पर इस तरह निर्भर हैं कि यदि किसी एक तत्व के साथ छेड़छाड़ की जाय तो प्रकृति संतुलन में व्यवधान आ जायेगा।परंतु आज हम गाँधी दर्शन के इस सारतत्व को न समझकर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं।परिणामस्वरूप हमारे जीवन में कई तरह की समस्याएं उत्पन्न हो गयी हैं।आज औद्योगीकरण, निर्वनीकरण,नगरीकरण,औद्योगिक अपशिष्ट, नाभिकीय परीक्षण, रासायनिक कृषि के कारण  भूमि, जल, वायु सभी प्रदूषित हो रहे हैं।ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा हवा में बढ़ती जा रही है, जिसके कारण धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है।धुर्वीय वर्फ़ तेजी से पिघल रही है, ओज़ोनपरत का क्षरण हो रहा है, ग्लोबल वार्मिंग, जैव विविधता क्षरण, जलवायु परिवर्तन आदि एवं प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन से विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं का जन्म हुआ है।



ऐसे कठिन समय में पर्यावरण संरक्षण की अधिक आवश्यकता महसूस हो रही है। पर्यावरण संरक्षण में भारतीय सभ्यता व संस्कृति, विशेष रूप से महात्मा गाँधी के जीवन दर्शन से मदद मिल सकती है। गाँधी के विचार प्रत्यक्षतः पर्यावरण से संबंधित न होकर उनके सत्य-अहिँसा और जगत कल्याण के विचार में दिखाई पड़ता है, जिसमें उन्होंने प्राकृतिक नियमों और सौंदर्य बोध के प्रति अपने विचार व्यक्त किये हैं।प्राकृतिक संसाधनों की सुलभता,प्राणियों के स्वास्थ्य, क्रियाकलापों, रहन-सहन तथा मानव के आचार-व्यवहार,संस्कृति,आर्थिक विकास आदि को भी निर्धारित करता है।सामान्य अर्थों में या बोलचाल की भाषा में पर्यावरण एवं प्रकृति को एक ही अर्थ में समझा जा सकता है।
         राष्ट्रपिता गाँधी का प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम, स्नेह व सम्मान था। उनका प्रकृति-दर्शन अध्यात्म से ओत-प्रोत था।वे प्रकृति को ईश्वर की ही अभिव्यक्ति मानते थे।उनके अनुसार जो वस्तु जितनी ही प्रकृति के समीप रहेगी, वह उतनी ही अधिक सुन्दर होगी।इसलिए गाँधीजी प्रकृति एवं प्राकृतिक सौंदर्य में मानव हस्तक्षेप का समर्थन न करते हुए उसके विवेकपूर्ण उपयोग की बात करते थे ताकि प्रकृति का सौंदर्य अक्षुण्ण रहे।आज हम भी सतत विकास अथवा संधारणीय विकास की बात करते हैं, जिसकी अवधारणा संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट में  20 मार्च,1987 में ब्रूटलैंड आयोग ने अपने पत्रक 'हमारा साझा भविष्य' में प्रथमतः की थी।धारणीय विकास के अन्तर्गत पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को संरक्षित रखते हुए विकास कार्य होते हैं। संधारणीय विकास गाँधी दर्शन के ही अनुरूप प्राकृतिक संसाधनों के सुरक्षित उपयोग पर बल देता है ताकि भावी पीढ़ियों हेतु पर्यावरण संरक्षित रहे।

गाँधी प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति काफी संवेदनशील थे और हमेशा जन मानस से 'प्रकृति की ओर वापस लौटो' की अपील करते रहते थे।गाँधी का ध्येय वाक्य था'सियाराम मय सब जग जानी' और 'ईश्वर अंश जीव अविनासी'; उन्होंने सम्पूर्ण प्रकृति को ईश्वर के दिव्य गुणों की अभिव्यक्ति माना।उनका अहिंसा और सर्वोदय न केवल जीवित प्राणियों के लिए था, अपितु निर्जीव भौतिक पदार्थों के लिए भी था।गाँधीजी का मानना था कि यदि मनुष्य प्राकृतिक जीवन व्यतीत करे तो वह आत्मविकास व जनकल्याण कर सकता है।उन्होंने भूमि, जल, वायु, अग्नि और प्रकाश जैसे पंचतत्वों के समुचित अनुप्रयोग से रोगों के इलाज की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को सर्वश्रेष्ठ माना जिससे उनका प्रकृति या पर्यावरण के प्रति लगाव स्पष्ट झलकता है। यह सब उन पर जैरत की पुस्तक'रिटर्न टू नेचर' का प्रभाव पड़ने के कारण था। उन्मुक्त प्राकृतिक परिवेश में लम्बी-लम्बी पदयात्राएं कर सदैव प्रकृति से अपना संस्पर्श बनाये रखा।
वास्तव में पर्यावरण प्रदूषण जल, थल एवं वायु के भौतिक,रसायनिक तथा जैविक विशेषताओं में होने वाला ऐसा अवांछनीय परिवर्तन है जो मानव और उसके लिए लाभदायक सूक्ष्मजीवों-जन्तुओं तथा वनस्पतियों को हानि पहुंचाता है।पर्यावरण प्रदूषण को पर्यावरण अवनयन के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि जीवन के लिए हानिकारक हो जाता है। आधुनिकता की इस भौतिकवादी दौड़ में हम भौतिक विकास का दंभ भरते हुए अघा नहीं रहे हैं।बड़े-बड़े कारखाने, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं, चौड़े-चौड़े राजमार्ग,बड़ी- बड़ी मशीनें,नाभिकीय यंत्रों के प्रदर्शन की होड़ में लगे हैं। इसका यह कत्तई तात्पर्य नही है कि हम इसके विरोधी हैं, लेकिन मानव कल्याण की, जीव कल्याण की भावना सर्वोपरि होनी चाहिए।प्रकृति का विनाश कर हम सुखी व स्वस्थ जीवन व्यतीत नही कर पाएंगे।अनियंत्रित विकास के कारण हमारी प्राकृतिक सम्पदाएँ नष्ट हो रही हैं और पर्यावरण-असंतुलन का खतरा बढ़ता ही जा रहा है।
                   गाँधीजी का सम्पूर्ण जीवन-दर्शन प्राकृतिक नैतिकता से परिपूर्ण है।उनका प्रकृति पर इस कदर विश्वास हो गया कि उन्होंने प्राकृतिक इलाज को जीने का सिद्धांत बना लिया।वे अपने आश्रम के डॉक्टर हो गए।वह वहाँ आने वाले मरीजों के इलाज के लिए भोजन की आदतों में सुधार, पानी के इलाज(हाइड्रोपैथी),उपवास,प्रार्थना और आराम के तरीकों का प्रयोग करते थे और स्वयं भी इन नियमों का पालन करते थे।गाँधी संयम की ताकत समझ चुके थे, जिसने उन्हें प्रकृति के और करीब ला दिया था।उनका प्रकृति के प्रति असीम अनुराग आजीवन बना रहा।अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को कम करना,लोभ का परित्याग,अपरिग्रह,कुटीर उद्योग,स्वावलंबन, सर्वोदय,ट्रस्टीशिप,अहिंसा आदि के बारे में उनके विचार तथा पर्यावरण के प्रति अत्यधिक लगाव, ये सभी उनके पर्यावरण-प्रेम और चेतना की ओर इंगित करते हैं।उन्होंने हमेशा इस बात पर बल दिया कि प्रत्येक व्यक्ति को श्रमपूर्वक अपनी आजीविका अर्जित करनी चाहिए और उसी से अपना जीवनयापन करना चाहिए।उनका कहना है कि प्रकृति के पास मनुष्य को देने के लिए बहुत कुछ है, वह प्रत्येक मनुष्य की आवश्यक  आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है,लेकिन वह उसके लालच को कभी पूरा नहीं कर सकती।उन्होंने हमेशा लोगों से कहा कि वे अनवश्यकरूप से धन का संचय न करें और यदि उनके पास आवश्यकता से अधिक धन हो तो उसे समाज के निर्धन एवम अभावग्रस्त समुदाय के हित में खर्च करें।यदि हम अपरिग्रह एवं ट्रस्टीशिप को अपने व्यवहार में लाएं, तो प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन नहीं होगा। इससे साफ दिखाई पड़ता है कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था और आधुनिक भौतिकवादी विकास की दिशा को बिना परिवर्तित किये पर्यावरण पर जो संकट उत्पन्न हुआ है, उसका स्थायी समाधान नहीं हो सकता है।


प्राकृतिक दृश्य वास्तव में सौंदर्य शाश्वत प्रतीक हैं। गाँधी उसे 'सत्यं, शिवं,सुंदरम' के रूप में ईश्वर की अभिव्यक्ति मानते थे।उनके इस विचार में प्राकृतिक और सांस्कृतिक वातावरण की झलक स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।प्रकृति के सौंदर्य के साथ ही साथ वे प्रकृति की नियमबद्धता से भी अत्यधिक प्रभावित थे।उनके अनुसार सूरज, चाँद, तारे सभी एक नियम से संचालित होते हैं, बिना नियम के एक क्षण भी संसार नहीं चल सकता है।वह इस व्यवस्था को ईश्वरीय शक्ति ही मानते हैं, किन्तु पर्यावरणीय दृष्टि से इसे पारिस्थितिकी तंत्र माना जाता है जिसके अंतर्गत हम यह मानकर चलते हैं कि पूरा तंत्र एक सुनिश्चित नियम के अंतर्गत कार्य करता है और उसमें किसी तरह का व्यवधान होने पर सम्पूर्ण तंत्र ही प्रभावित हो जाता है।उसका नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ने लगता है।गाँधीजी की मान्यता है कि पर्यावरण के प्रति  जैसा व्यवहार होगा वैसा ही उसे प्राप्त होगा।
रिटा. प्रोफेसर मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पीजी कॉलेज वाराणसी।

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