वैज्ञानिक प्रगति के मानवीय निहितार्थ
- प्रो. एनएल मिश्र
    देश की सोच को वैज्ञानिक उन्मुखीकरण के तरफ मोड़ने का हर संभव प्रयास चल रहा है। वर्तमान सरकार ने डिजिटलाइजेशन को प्राथमिकता दी है और अधिकांश कार्य नेट, कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर, मशीन लर्निंग और ए आई के माध्यम से करने के प्रयास जारी हैं। देश की बढ़ती जनसंख्या और उनकी बढ़ती समस्याएं मानवीय सीमाओं को पार कर रही हैं।बिना डिजिटलाइजेशन के इन पर काबू पाना संभव नहीं है।
देश में नई शिक्षा नीति भी स्किल एजुकेशन पर बल देने की बात करती है साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा पर भी कहीं कहीं छिटपुट आवाजें सुनाई देती हैं।हम वेद,पुराण,उपनिषद और धार्मिक ग्रंथों में ज्ञान की परंपरा को तलाशने की कोशिश भी कर रहे हैं।ये कार्य साथ साथ चल रहा है।प्रश्न यह है कि ये दोनों धाराएं यदि साथ साथ समानांतर तरीके से चलेंगी तो दोनों धाराएं स्वतंत्र रूप से अपने अपने क्षेत्र में आगे बढ़ेंगी और सुदूर भविष्य में टकराएंगी भी।इसका नतीजा यह होगा कि वैज्ञानिक प्रगति और ज्ञान की परंपराएं एक दूसरे का अवरोधक बनेंगी।
इनमें यदि समन्वयन नहीं होगा तो ये मानवीय दृष्टिकोणों की उपेक्षा करेंगे और कल्याणकारी सत्ता में बाधा भी पहुंचाएंगे।जिस तरीके से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को आनन फानन में लागू कर दिया गया और उसके विषय वस्तु निर्धारित कर दिए गए,शिक्षकों और छात्रों में भ्रम का निर्माण हुआ ।हालांकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उद्देश्य और पुरानी नीति की इतिश्री दोनों ही अच्छे हैं पर इसे प्रारंभिक या प्राथमिक शिक्षा से लागू करना चाहिए वह भी अपनी बोली,वैज्ञानिक शिक्षा और भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ,एक ठोस पाठ्यवस्तु के साथ और इसे क्रमशः धीरे धीरे आगे की कक्षाओं में लागू करना चाहिए था।पर ऐसा नहीं हुआ और कहीं यह स्नातक स्तर पर शुरू कर दिया गया तो कहीं किसी और स्तर पर।
विज्ञान की नियति स्वतंत्र और प्रत्यक्ष सत्ता पर आगे बढ़ती है।वह किसी मायावी या रहस्यमई दुनिया को अपना आधार नहीं मानती।उसका लक्ष्य रहस्य से पर्दा उठाना और उसका विश्लेषण करना होता है। सुई बनाने से लेकर नाभिकीय हथियारों, स्पेस से लेकर भूगर्भ और समुद्र की तलहटी तक विज्ञान ने अपने पांव पसार दिए हैं। इनका उपयोग अधिकाधिक रूप से भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तक किया जाता है पर जैसे ही विज्ञान प्रकृति और ईश्वरीय सत्ताओं से टकराता है,वह पीछे घूम जाता है।इसलिए विज्ञान को मानव केंद्रित और सृष्टि के कल्याणार्थ होना होगा।


         उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम काल में विज्ञान जगत में कुछ विस्मयकारी आविष्कार हुए जिसमें एक्सरे की खोज (1855) प्राकृतिक रेडियो सक्रियता (1896) और इलेक्ट्रान (1897)।इससे एक तथ्य सामने उभड़कर आया था कि वैज्ञानिक विशेषकर भौतिकशास्त्री जिस प्रकृति को प्राकृतिक नियमों की जिन अवधारणाओं को विज्ञान के लिए नींव का पत्थर समझ रहे थे,वे अकस्मात भहराने लगे थे।अब यह बात स्वतः स्पष्ट हो चली कि इलेक्ट्रॉन , प्रोटॉन,न्यूट्रॉन नाभिकीय कण नहीं रहे और मेसान कण तथा गॉड पार्टिकल अचानक महत्वपूर्ण हो गए।जब इन कणों की खोज हुई तो ऐसा परिलक्षित होने लगा कि पहली सीढ़ी के भौतिकशास्त्रियों द्वारा प्राकृतिक विश्व और उसकी संरचना के जो नियम स्थाई माने जा रहे थे अचानक वे महत्वहीन हो गए।
        उक्त स्थितियों पर लेनिन की टिप्पणी प्रासंगिक प्रतीत होती है कि आज का भौतिक विचारवाद एक प्रतिक्रियावादी दर्शनशास्त्र में जा फंसा है,क्योंकि वे अधिभूतवादी भौतिकवाद के सीधे और एकबारगी द्वन्द्वात्मकत भौतिकवाद तक उठ नहीं पाते।यह कदम आधुनिक भौतिकशास्त्र उठा तो रहा है और उठाएगा लेकिन  वह एकमात्र सत्य पद्धति और एकमात्र सत्य दर्शन शास्त्र की ओर सीधे नहीं बल्कि टेढ़े मेढ़े ढंग से, सजग भाव से नहीं बल्कि सहजबोध के द्वारा,अपने अंतिम लक्ष्य को साफ समझकर नहीं बल्कि अनुमान से ,उसके निकट जाते हुए अस्त व्यस्त चाल से और कभी कभी उसकी तरफ पीठ भी कर लेते हुए क्रमशः बढ़ रहा है।आधुनिक भौतिकी प्रसव पीड़ा से गुजर रही है।
      इस तरह इस पर गहनता से विचार करें तो पाएंगे कि विज्ञान स्वतंत्र रूप से आगे की तरफ जाते हुए भी कहीं न कहीं वह एक द्वन्द्वात्मक परिस्थितियों को भी झेल रहा है। गोर्डन चाइल्ड का कहना है कि "एक तरफ तो विज्ञान प्राकृतिक प्रक्रिया को समझने और उसका उपयोग करने की कोशिश कर रहा था और साथ ही दूसरी तरफ इस प्राकृतिक विश्व में काल्पनिक सत्ताओं को भी आबाद कर रहा था जिनको उसने अपनी रूपरेखा के अनुरूप गढ़े थे और जिनको वह बलप्रयोग या प्रलोभन के लिए उपयोग कर सकता था। इस तरह वह विज्ञान और अंधविश्वास की संरचना साथ साथ कर रहा था।विज्ञान के द्वारा संभव हुई शहरी क्रांति का दुरुपयोग अंधविश्वास ने किया। किसानों और कामगारों की उपलब्धि का असली लाभ पुरोहितों और राजाओं ने उठाया। विज्ञान की जगह जादू को गद्दीनशीन किया गया और उसे ही सत्ता सौंपी  गई। मनुष्य ने अंधविश्वासों का और शोषण की संस्थाओं का वैसे ही निर्माण किया जैसे कि उसने विज्ञान का और उत्पादन के औजारों का निर्माण किया।दोनों के द्वारा वह स्वयं को अभिव्यक्त कर रहा था, स्वयं को खोज रहा था, स्वयं को रच रहा था।"


       आवश्यक है कि विज्ञान को अंधविश्वास से दूर होकर उसे मानवीय पक्ष को केंद्र में लेते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है। बढ़ती जनसंख्या और उसकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सीमित संसाधनों की उपस्थिति के बावजूद मानवीय जरूरतों के हिसाब से नए आविष्कार के तरफ बढ़ना ही होगा। मानव कल्याण मुख्य है पर वह अंधविश्वास के चक्रव्यूह में न फंसे।
(महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट)

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